Thursday 16 February 2017

विद्यालयों में शुल्क नियंत्रणः क्या यह शिक्षा क्षेत्र की सहायता करेगा?

गुजरात सरकार में विद्यालयों में शुल्क नियंत्रित करने का एक प्रस्ताव है। ऐसी संभावना है कि विधानसभा के आने वाले सत्र में एक बिल रखा जाएगा जो विद्यालय में शुल्क नियंत्रित करेगा। आइए हम जांच करते हैं कि क्या शुल्क पर नियंत्रण एक आर्थिक दृष्टि से विवेकी निर्णय है।

यह अनुमानित है कि बिल में एक राशी उल्लेखित होगी एवं विद्यालयों को केवल यह औचित्य सिद्ध करना होगा कि वे निर्धारित राशी से अधिक शुल्क क्यों वसूल रहे हैं। जहां कुछ लोग मानते हैं कि ऐसी कोई राशी निर्धारित नहीं की जाने वाली - प्रत्येक विद्यालय में एक समिति स्थापित की जाएगी एवं राशी प्रत्येक विद्यालय की उस समिति द्वारा निर्धारित की जाएगी। हालांकि हमारे पास अब तक उस नियंत्रण के बारे में कोई स्पष्ट जानकारी नहीं है।

अर्थशास्त्र - जो विद्यालयों एवं महाविद्यालयों में पढ़ाया जाता है उसमें ‘‘बाज़ारकी अवधारणा होती है। वस्तुओं एवं सेवाओं की कीमतें बाज़ार द्वारा निर्धारित की जानी होती हैं एवं एक आर्दश प्रतिस्पर्धी बाज़ार में कीमतें बिल्कुल सही होंगी ताकि विक्रेताओं को कोई हानि ना हों एवं ग्राहकों को उससे कहीं अधिक मूल्य प्राप्त हो जितना वे भुगतान करते हैं। उदाहरण के लिए, यदि कखग विद्यालय 1 लाख रूपये का शुल्क वसूल करता है जबकि विद्यालय को उसकी लागत 50,000 रूपये पड़ती है, अर्थशास्त्रियों को लगता है कि एक नया अबस विद्यालय ठीक कखग विद्यालय के पीछे आएगा और फिर या तो कखग विद्यालय को शुल्क कम करना होगा अथवा खाली बैठना होगा। यदि अभिभावकों को अबस विद्यालय पसंद नहीं है तो वे तब भी कखग विद्यालय में प्रवेश के लिए प्रयास करेंगे - और तब अबस विद्यालय को उसकी सेवाएं सुधारनी होगी अथवा खाली बैठना होगा।

कोई भी सरकारी नियंत्रण बाज़ार को उलझाएगा एवं ऐसी स्थिति उत्पन्न करेगा जहां अबस विद्यालय नहीं पाएगा एवं अभिभावकों को उनके बच्चों का प्रवेश कखग विद्यालय में ही करवाना होगा। कखग का शुल्क नियंत्रण के आधार पर कम हो सकता है अथवा नहीं भी, हालांकि निरंतर विकास की आवश्यकता अवश्य कम होगी।

अर्थशास्त्र में अन्य अवधारणा ‘‘प्रतिस्थापन”  है। मान लीजिए कि आप एक गर्म ग्रीष्मकालीन दोपहर में प्यासा एवं थका हुआ महसूस कर रहे हैं। आप विचार कर रहे हैं कि नींबू पानी पीना चाहिए अथवा छाछ, यह मानते हुए कि वे उपलब्ध हैं एवं एक ही कीमत के हैं, आप उसे खरीदने के लिए विक्रेता के पास जाते हैं। हांलाकि उस क्षेत्र में कुछ ही ऐसे स्थान हैं जहां उनका उत्पादन होता है तो आप थम्स अप अथवा पेप्सी चुनते हैं - जो उसी मूल्य के हैं, स्वच्छ हैं तथा ठंडे स्वरूप में प्रदान किए जाते हैं। यद्यपि सभी 4 पेय एक ही मूल्य के हैं, आप मूल्य के बजाए अन्य कारणों के आधार पर निर्णय लेते हैं कि क्या पीना है। तो जहां सरकार यह बहस कर रही है कि नींबूपानी अथवा विद्यालयों को क्या शुल्क वसूल करना चाहिए - ग्राहक आकलन कर रहा है कि उनके बच्चों को महाविद्यालय में प्रवेश प्राप्त करने के लिए कौन सी कक्षाएं लेनी चाहिए अथवा एक कहीं अधिक उच्च कीमत पर थम्स अप खरीदना चाहिए।

एक देश होने के नाते हमें यह समझने की आवश्यकता है कि पिछले समय में भी मूल्य नियंत्रण असफल हुआ है खासतौर पर सेवाओं में। किन्हीं भी दो सेवाओं की तुलना नहीं की जा सकती एवं फीस का निर्धारण करने में बहुत सी व्यक्तिपरकता है। यदि स्थापित विद्यालय को नए अभिभावक प्राप्त हों जो बगैर किसी दबाव के प्रवेश शुल्क एवं परीक्षा शुल्क देने को तैयार हों यह एक लिटमस परीक्षण है कि विद्यालय अच्छा कार्य कर रहा है। यदि विद्यालय खाली जा रहा है तो विद्यालय संस्थापक भुगतेंगे और यदि प्रवेश के लिए लंबी कतारें हैं - तो यह निश्चित है कि विद्यालय एक उत्कृष्ट कार्य कर रहा है।