Friday 4 November 2016

विद्याथियों की फिटनेस व अकादमिक प्रदर्शन में गणवेशों की भूमिका

अमेरिकी हार्ट एसोसिएशन ने निर्णय लिया है कि एक व्यक्ति को स्वस्थ रहने के लिए एक दिन में 10,000 कदम चलना आदर्श है। वर्तमान में स्वास्थ्य न केवल वयस्कों के लिए बल्कि बच्चों के लिए भी चिंता का विषय है। बचपन का मोटापा हमारी भविष्य की पीढ़ी के लिए सबसे बड़े खतरों में से एक है। एक बार बच्चे के मोटा अथवा अधिक वज़न के होने के बाद वह वयस्क बनने पर भी वैसा ही रहता है। यहां तक की यह एक आजीवन की समस्या हो जाती है। परिवारों के एक या दो ही बच्चे होने के कारण उनके भोजन व पार्टी के लिये बजट बढ़ गया है। बच्चों को अच्छी तरह से खिलाया जाता है और अधिकांश बार अधिक खिलाया जाता है। परंतु यह समस्या का एक ही भाग है। अन्य भाग विद्यालय के दौरान उनकी गतिविधियों का स्तर।

बच्चे विद्यालय में प्रतिदिन 6 घंटे व्यतीत करते हैं। अधिकांश समय वे बैठे रहते हैं। कई विद्यालयों ने विद्यालय के दिनों में गतिविधि की योजना बनाई है। रीसेस में उन्हें खेलने व कुछ शारीरिक गतिविधि करने का अवसर प्राप्त होता है। घर जाने के बाद कुछ बच्चे टीवी देखते हैं व कुछ पढ़ाई करते हैं। एक आयु समुह के बच्चे ना होने के कारण या सुरक्षा चिंताओं के कारण सभी बच्चे घर जाने के बाद नहीं खेलते हैं।

जब वे किशोरावस्था में पहुंचते हैं जहां उनके शरीर अधिक ऊर्जावान होते हैं वहीं उनकी पढ़ाई का भार भी बढ़ जाता है इसलिए उन्हें शारीरिक गतिविधि करने की बजाये बैठ कर पढ़ाई करने में अधिक समय व्यतीत करना होता है।

तो अगली पीढ़ी के मन में फिटनेस को अंतर्निहित करने का एक ही तरीका है। हमें बच्चों को उनके 9वीं कक्षा में जाने से पहले ही सक्रिय करना होगा। सबसे आसान तरीकों में से एक है विद्यालय की समय सारिणी में सप्ताह के हर दिन एक शारीरिक गतिविधि का पीरियड़ होना। एक बार मैंने एक विद्यालय की समयसारिणी देखी जहां सप्ताह का एक दिन एक कक्षा को विभिन्न गतिविधियों के लिए सर्मपित था। उदाहरण के लिए मंगलवार को दूसरी कक्षा गतिविधि के लिए जाती है वहीं बुधवार को तीसरी कक्षा जाती है। यह देखना दिलचस्प था कि बच्चे जो आलसी थे वे उन दिनों में अनुपस्थित हो जाते थे।

मैंने प्रधानाध्यापिका से पूछा कि पीरियड़ों के वितरण का यह विशिष्ट तरीका क्यों है और उन्होंने कहा कि इन दिनों में लड़कियां उनकी फ्रॉक के भीतर पजामा पहनती थी ताकि वे सभी गतिविधियों में भाग ले सकें। तभी मेरे मन में एक प्रश्न उठा कि लड़के तो रीसेस में खेल लेते होंगे परंतु उन दिनों में लड़कियां क्या करती होंगी-पजामा नहीं- तो शारीरिक गतिविधि नहीं!

इससे एक महत्त्वपूर्ण अवलोकन प्राप्त हुआ। लड़कियां रीसेस में आमतौर पर खाना खाती थीं व गपशप करती थीं जबकि लड़के शारीरिक गतिविधि करते थे। सभी विद्यार्थियों को व्यायाम की दैनिक खुराक नहीं मिल पा रही थी बल्कि सप्ताह के एक विषेश दिन वे सारे व्यायाम कर रहे थे। अंततः लड़कियों का वज़न आदर्श स्थिति से अधिक बढ़ रहा था। दूसरी तरफ लड़के भी लापरवाह थे क्योंकि उनकी गतिविधि के पीरियड कम थे।

अहमदाबाद के दो विद्यालय-उद्गम व ज़ेबर ने लड़कियों को ट्राउज़र (पतलून) दी हैं व उनकी समय सारिणी में प्रतिदिन एक गतिविधि का पीरियड दिया है। ऐसा करने के वर्षों बाद बच्चों के स्वास्थ्य में एक उल्लेखनीय सुधार आया है व वे विद्यालय आने के लिए प्रोत्साहित हुए हैं- इसलिये अनुपस्थितियों का स्तर नीचे चला गया है। आमतौर पर विद्यार्थियों की प्रतिरोधक क्षमता बढ़ी है व इसलिये बीमारी के दिन भी कम हुए हैं। कुल मिला कर विद्यालय के शैक्षणिक मानक ने एक निरंतर सुधार दर्शाया है।


बच्चे के विकास में निन्दा से कहीं अधिक महत्त्वपूर्ण प्रशंसा है (भाग 1)

कई वर्षों पहले मेरे पास शिक्षकों के एक समूह के लिए एक प्रश्न थाः आप निम्न स्थितियां में क्या करेंगेः

  1. एक बच्चा कक्षा में दुर्व्यवहार करता है
  2. होमवर्क नहीं करता
  3. समय का पाबंद नहीं है
  4. उपयुक्त गणवेश नहीं पहनता है
  5. अच्छी तरह से खाना नहीं खाता है

अधिकांश शिक्षकों ने उत्तर दिया कि हमः

बच्चे को कक्षा में दंड देंगे
  1. डायरी में माता पिता के लिए नोट लिखेंगे
  2. बच्चे को प्राचार्य के पास भेजेंगे
  3. यदि मामला गंभीर है तो माता पिता से मिलेंगे

मैंने अन्य प्रश्न पूछा कि यदि बच्चा इसके बिल्कुल विपरीत है-जैसे कि बहुत अच्छा व्यवहार है, हर बार होमवर्क करता है, समय का बहुत पाबंद है या उपयुक्त गणवेश पहनता है, लंच बॉक्स में से सबकुछ खा लेता है, सबकुछ अच्छे से करता है जो उससे किया जाना अपेक्षित है, तो आप क्या करेंगे? अधिकांश शिक्षकों ने कहा कि वे बच्चे की प्रशंसा कक्षा के सामने करेंगे। अच्छा प्रदर्शन करने वाले विद्यार्थियों का कम ही रिकार्ड था।

इसने मुझे सोचने पर मजबूर कर दिया कि क्यों एक गलती दोहराने वाले के लिए दंड गंभीर है परंतु एक सुसंगत प्रदर्शन करने वाले के लिए कोई ‘‘अतिरिक्त” सराहना नहीं है। इसके अलावा, प्रशंसा किए जाने का कोई रिकार्ड नहीं था हालांकि निंदा का एक स्थायी रिकार्ड डायरी में था।

एक बच्चे के विकास में ऊपर उल्लेखित अधिकांश वस्तुएं बहुत महत्त्वपूर्ण थीं। तद्यपि किसी भी पाठ्यक्रम में उसे शामिल नहीं किया गया था और किसी भी टेस्ट में उसके लिए अंक नहीं दिए गए थे। बल्कि इन सभी छोटे प्रयासों से बच्चा एक परीक्षा में बेहतर प्रदर्शन करेगा, परंतु प्रत्येक चरण पर बच्चे के लिए कोई पुरस्कार नहीं था।

एक और असंबंधित अवलोकन यह था कि विद्यार्थियों को प्रतिस्पर्धा करना बहुत पसंद था। अंकन प्रणाली के चले जाने के साथ व विद्यार्थियों को ग्रेड दिये जाने के कारण वे शैक्षिक उपलब्धियों के माध्यम से एक दूसरे के साथ तुलना नहीं कर रहे थे। इसलिए अब वह प्रतिस्पर्धा और कहीं जा रही थी। ये यह था कि क्या तुमने छुटिटयों में किसी विदेशी देश की यात्रा की? क्या तुम्हारे पिता के पास एक बड़ी कार है? क्या तुम्हारे पास नवीनतम आईपैड है या क्या तुमने नवीनतम खेल में उच्च स्कोर प्राप्त किया?

कई बार ये प्रतिस्पर्धाएं बिल्कुल विपरित दिशा में जाती हैं- इस वर्ष तुम्हारे माता पिता को कितनी बार बुलाया गया? बच्चे स्वयं को बेहतर करने के स्थान पर दंड प्राप्त करने में गर्व महसूस करने लगते हैं व परिणामस्वरूप कट्टर अपराधी बन जाते हैं।

बाल मनोवैज्ञानिक विशेषज्ञों का मानना है कि बच्चे त्वरित संतुष्टि (इनाम) चाहते हैं। तो यदि आप बच्चों को ये कहें कि यदि आपने आज अच्छा बर्ताव किया तो मैं शैक्षणिक वर्ष के अंत में तुम्हें अच्छे अंक दूंगा, यह उन्हें प्रोत्साहित नहीं करता। यहां तक कि ‘‘स्टेनफोर्ड मार्शमेलो प्रयोग” ने पता किया कि यदि बच्चों को अभी एक छोटे पुरस्कार व 15 मिनट बाद एक बड़े पुरस्कार के बीच में चयन करने का विकल्प दिया जाए तो वे एक तत्काल छोटा इनाम चुनेंगे। तो हम बच्चों को एक अच्छा व्यवहार करने वाला व बुद्धिमान नागरिक बनाने के लिए एक सकारात्मक सुदृढीकरण की एक प्रणाली बनाने के लिये ऊपर उल्लेखित जानकारियों का उपयोग किस प्रकार करेंगे?

अगले सप्ताह हम अहमदाबाद के दो विद्यालयों में कार्यान्वित की गई एक परियोजना के बारे में बात करेंगे।

बच्चे के विकास में निन्दा से कहीं अधिक महत्त्वपूर्ण प्रशंसा है (भाग 2)

पिछले लेख में हमने चर्चा की कि किस प्रकार शिक्षक नकारात्मक टिप्पणी रिकार्ड पर डाल देते हैं परंतु सकारात्मक टिप्पणी मौखिक रूप से दी जाती है। साथ ही, बच्चे तत्काल पुरस्कार चाहते हैं व परिणाम प्राप्त करने के लिए वर्ष के अंत की मार्कशीट तक का इंतज़ार नहीं कर सकते।

तो अहमदाबाद के दो विद्यालयों ने एक दिलचस्प प्रयोग किया-अच्छे व्यवहार के लिए स्टीकर्स देने का। वे छोटी वस्तुएं जिनके लिए अंक नहीं दिये जा सकते परंतु बच्चे के जीवन में महत्त्वपूर्ण हैं, उनके लिये स्टीकर्स दिए जाते हैं। उदाहरण के लिए एक बच्चे को पुस्तकें पढ़ने का शौक है। पढ़ने के प्रति इस प्यार को विद्यालय द्वारा आयोजित टेस्ट में या बोर्ड परिक्षाओं में प्रशंसित नहीं किया जाएगा। परंतु हम सभी जानते हैं कि पढ़े बगैर बच्चे का सामान्य ज्ञान बहुत सीमित होता है। एक लाइब्रेरी शिक्षक उस बच्चे को स्टीकर देता है जो पढ़ने का शौकीन है।

अब इस प्रकार के स्टीकर को चिपकाया कहां जाता है? यदि हम डायरी में चिपकाते हैं तो वह प्रति वर्ष हट जाएगा। साथ ही स्टीकर के साथ नकारात्मक टिप्पणियां भी होंगी जो उसे याद दिलाएंगी कि वह उतना अच्छा/अच्छी नहीं है। इसलिये स्टीकर को एक छोटी पुस्तिका पर चिपकाया जाता है जो खास तौर पर इसी उद्देश्य के लिए है-इसे पासपोर्ट कहा जाता है। प्रत्येक स्टीकर को प्रदर्शन का वीज़ा कहा जाता है व पुस्तिका को उत्कृष्टता के लिए पासपोर्ट कहा जाता है।

इस प्रणाली को सकारात्मक वयवहार के लिए प्रोत्साहित करने में कई वर्षों के अनुसंधान के बाद विकसित किया गया है। एक बार इस प्रकार का वीज़ा दिये जाने के बाद उसे वापस नहीं लिया जाता है। पासपोर्ट में कोई भी नकारात्मक टिप्पणियां नहीं होनी चाहिये। प्रत्येक शिक्षक केवल 3-4 वीज़ा ही दे सकता है व विद्यार्थी को एक प्रकार का वीज़ा एक ही बार दिया जा सकता है।

वह बच्चा जिसे एक कक्षा में सबसे अधिक बीज़ा प्राप्त होंगे उसे वर्ष के अंत में सम्मान प्राप्त होगा। कक्षा में अधिकतम वीज़ा प्राप्त करने की प्रतिस्पर्धा रहेगी। हालांकि एक बच्चे को एक प्रकार का वीज़ा एक बार ही मिल सकता है, बच्चे को अन्य पहलुओं पर भी सुधार करना होता है। इससे बच्चे का सर्वांगीण विकास होता है।

वीज़ा के प्रकार शिक्षकों द्वारा, बच्चों में उनके द्वारा देखी गई परेशानियों के आधार पर निर्धारित किए जाते हैं। उदाहरण के लिए कम्प्यूटर कक्षा में बहुत अधिक दुर्व्यवहार था। इसलिये शिक्षक ने घोषणा की कि उसे निपुणता का वीज़ा दिया जाएगा जो प्रैक्टिकल को सबसे पहले समाप्त करेगा। यह बच्चों को मस्ती करने के स्थान पर सौंपा गया कार्य करने की दौड़ के लिए प्रोत्साहित करेगा।

उद्गम विद्यालय- बच्चों को प्रोत्साहित करने के लिए इस प्रणाली का उपयोग पिछले 4 वर्षों से कर रहा है व उसने अच्छे परिणाम प्राप्त किये हैं। पालकों ने प्रशंसा की है व बच्चों ने भी। यह शिक्षकों के लिए कार्य को थोड़ा बढ़ा देता है परंतु कक्षा के नियंत्रण व बच्चों के अकादमिक ने सकारात्मक सुधार दिखाया है। हाल ही में इसी प्रणाली को ज़ेबर विद्यालय में भी लागू किया गया है। 

बच्चों को उत्पादक रूप से संलग्न करने का प्रभावशाली तरीका

बच्चों के पास अपने खाली समय में करने के लिए सीमित वस्तुएं हैं। वयस्क पर्यवेक्षण के बगैर या तो वे दोस्तों के साथ खेलते हैं, मोबाईल उपकरणों पर गेम खेलते हैं या टी.वी. देखते हैं। मस्तिष्क का उपयोग सीमित है और इसलिये मस्तिष्क का विकास प्रभावित होता है। इसके अलावा, वे कॉलोनियां जहां एक ही उम्र के ज़्यादा बच्चे नहीं हैं-एकमात्र विकल्प जो परिवार उनके बच्चों को दे सकते हैं वह है-स्क्रीन के सामने समय बिताना।

बच्चों को आकर्षित करने का व उन्हें मज़ेदार तरीके से मानसिक विकास प्रदान करने का एक अभिनव तरीका है। तो एक बक्से में वे गतिविधियां हैं जो बच्चे उनकी उम्र के अनुसार कर सकते हैं। अधिकांश गतिविधियां बच्चे वयस्क पर्यवेक्षण के बगैर कर सकते हैं जबकि कुछ गतिविधियों में बच्चों को कुछ सहायता की आवश्यकता हो सकती है।

उदाहरण के लिए विषय वरीष्ठ केजी के विद्यार्थियों को तीन वर्षां के शब्द सिखाने से संबंधित है। तो दो वर्ष वाले छोटे बक्सों के साथ एक बोर्ड खेल है और उनके टूकड़ों को आगे ले जाने के लिए बच्चों को दो वर्णों से बनने वाले अधिक से अधिक शब्दों की संख्या का अनुमान लगाना है। जो बच्चा सबसे अधिक शब्दों का अनुमान लगाएगा, वह जीतेगा। यह बच्चों को खेल के साथ सीखने का एक सरल तरीका है।

एक प्लेग्रुप वाले बच्चे के लिए पाइप साफ करने वाले ब्रश में विभिन्न पैटर्न में मोती डालना विभिन्न सतहों को छूने का व कुछ रचनात्मक करने का एक शानदार अनुभव देता है। वास्तव में खेलते हुए उनके मस्तिष्क का विकास हो जाएगा।

यह कई सारे उम्र के अनुसार उपयुक्त खेलों का एक उदाहरण है जिन्हें बच्चों के लिये सोचा जा सकता है। अहमदाबाद के दो विद्यालय उद्गम व ज़ेबर ने बच्चों को दिवाली के पहले ऐसे 4 खेल देने की योजना बनाई है ताकि बच्चे उसे छुट्टियों में खेल सकें जब माता पिता भी कार्यमुक्त होते हैं।

अब शिक्षा कक्षा या पाठ्यपुस्तक ही सीमित नहीं है। छोटे बच्चों में, जितना अधिक वह अनुभव करता है उतना अधिक उसका मस्तिष्क विकसित होता है। बच्चों को वस्तुओं को छूकर महसूस करने देना उन्हें समझाने से अधिक महत्त्वपूर्ण है। तो बच्चों को पानी की तीन अवस्थाएं समझाना-भाप, तरल व बर्फ, उन्हें स्मार्ट बोर्ड पर विडियो दिखा कर समझाया जा सकता है। परंतु उन्हें वास्तव में दिखाने से वे तापमान को महसूस कर सकते हैं व भाप को संघनित होते हुए व बर्फ को पिघलते हुए देख सकते हैं। एक अवधारणा का वास्तव में अनुप्रयोग आसानी से समझने व याद करने में सहायता करता है और खासतौर पर तब जब बच्चों को सीखने में मज़ा आ रहा हो।

छोटे बच्चों को खेल खेलने से आसानी से आकर्षित किया जा सकता है और उन्हें नई वस्तुएं जानने की बहुत जिज्ञासा होती है- चाहे उन्हें उसके लिए कोई अंक नहीं प्राप्त होने वाले हैं। कोई भी नया अनुभव करना किसी भी अन्य पुरस्कार से अधिक फायदेमंद है। उन प्रारंभिक वर्षों के दौरान मस्तिष्क का विकास अधिकतम होता है। और चूंकि वस्तुओं को छूने, महसूस करने, व सूंघने में अधिक इंद्रियां शामिल होती हैं- एकाग्रता अधिक होती है।

ट्रंक वर्क्स, फ्लिंटोबॉक्स व मैजिक क्रेट नाम की कंपनियां हैं जो विभिन्न आयू समूह के बच्चों को इस तरह के बक्से देती हैं। ऐसे अभिनव समाधानों के साथ बच्चों के लिए शिक्षा आसान व दिलचस्प हो रही है।


गुजरात बोर्ड का एनसीईआरटी की पाठ्यपुस्तक की नकल करना एक भूल है

गुज़रात राज्य शिक्षा बोर्ड ने तेज़ी से अपने पाठ्यक्रम में संशोधन करने का फैसला किया है। मामलों को सरल बनाने के लिए 9वीं से 12वीं कक्षा के लिए एनसीईआरटी पाठ्यपुस्तकों की नकल की जाएगी व 2017 में उपयोग के लिये लागू की जाएगी। कई वर्षों से गुजरात सरकार दावा कर रही थी के गुजरात का पाठ्यक्रम आर्दश था व बच्चे प्रवेश परीक्षा का समाना अच्छी तरह से करने में सक्षम होंगे परंतु अचानक सरकार ने उसी पाठ्य्क्रम का पुनर्निमाण करने का फैसला लिया है।

इस निर्णय के साथ कुछ समस्याएं हैं। जहां हमें एनईईटी के माध्यम से मेडिकल प्रवेश आयोजित करने के निर्णय के लिए खुश होना चाहिये, गुजरात सरकार ने पाठ्यपुस्तकें बदलने का निर्णय लिया है। प्रश्न उठता है कि सरकार ने राष्ट्रीय पाठ्यक्रम ढ़ांचे को 11 वर्ष तक क्यों नहीं अपनाया?

एक बच्चे का प्रशिक्षण धीरे धीरे होता है, वह 15 वर्ष की अवधि का समय विद्यालय में गुज़ारता है। 11 वर्षों तक पढ़ाया गया पाठ्यक्रम गुजरात बोर्ड के पाठ्यक्रम पर आधारित था और अचानक से बच्चे को सीबीएसई पाठ्यक्रम को अपनाना होगा। इसे पहले प्राथमिक कक्षा से बदलना होगा फिर माध्यमिक कक्षाओं से ताकि वही बैच आधारभूत वर्षों से ही भिन्न पाठ्यक्रम से परिचित हो जाएं।

यह प्रश्न भी उठता है कि क्या हर बच्चा उस पाठ्यक्रम को अपनाने में सक्षम है जिसे चिकित्सकीय व ईंजीनियरिंग पाठ्यक्रम के लिए प्रवेश परीक्षा के उद्देश्य से बनाया गया है। हम सुर्खियों में देखते हैं कि शीर्ष महाविद्यालयों के लिए कट ऑफ अंक बहुत उच्च अंको पर समाप्त होते हैं। यह कहानी पढ़ने में बहुत दिलचस्प है कि किस प्रकार एक उम्मीदवार को उसकी पसंद के महाविद्यालय में प्रवेश नहीं मिल पा रहा जिसने 96 प्रतिशत अंक प्राप्त किये हैं। परंतु ज़मीनी वास्तविकता पर स्थिति बहुत अलग है। जहां कट ऑफ से संबंधित बातें सच हैं वहीं मुश्किल से उत्तीर्ण होने वाले विद्यार्थियों की संख्या उन विद्यार्थियों की संख्या से कहीं ज़्यादा है जिन्हें शीर्ष महाविद्यालयों में कुछ अंको की वजह से प्रवेश नहीं मिला।

वे विद्यार्थी जो राज्य बोर्ड में औसत से कम प्रदर्शन करते हैं, एनसीईआरटी पाठ्यक्रम अपनाए जाने के कारण अनुत्तीर्ण होने के लिए विवश हैं। उनके लिये राज्य बोर्ड की किताबों से ही उत्तीर्ण होना कठिन है, जिन्हें आसान समझा जाता है। इसके अलावा ये वे विद्यार्थी हैं जहां अभिभावक अतिरिक्त ट्यूशन की कीमत वहन करने में समर्थ नहीं है और इसलिये उन्हें विद्यालयीन शिक्षकों पर निर्भर रहना होता है। ये शिक्षक वर्षों से राज्य बोर्ड की पुस्तकें पढ़ा रहे हैं व अचानक से एनसीईआरटी में परिवर्तन से उन्हें झटका लगेगा।

बच्चे उनके जीवन का केवल 10 प्रतिशत भाग कक्षा में व्यतीत करते हैं व 90 प्रतिशत सीखना विभिन्न वस्तुओं द्वारा होता है जिसमें अभिभावकों से सहायता शामिल है। अब यदि अभिभावक स्वयं ही कम ग्रेड में पढ़ने वाले उसके बच्चे की सहायता नहीं कर सकता तो बच्चा किस प्रकार अध्ययन का सामना करेगा?

समाधान यह है कि हमें बच्चे की आवश्यकता व अभिभावकों की क्षमता से मेल खाता हुआ एक पाठ्यक्रम चाहिये। एक अशिक्षित अभिभावक की आवश्यकता शायद उसके बच्चे को किफायती शिक्षा दिलाने की हो सकती है वहीं उच्च शिक्षित अभिभावक उसके बच्चे को वैज्ञानिक बनाना चाहता हो। हमें उन बच्चों के लिए अलग पाठ्यक्रम की आवश्यकता है जो व्यावसायिक पशिक्षण प्राप्त करना चाहते हैं, एक सामान्य स्नातक स्तर की पढ़ाई करना चाहते हैं व उन बच्चों के लिए जो उन्नत अध्ययन करना चाहते हैं। यदि हम इन पहलुओं को अलग नहीं करेंगे तो मुझे यकीन है कि इन पाठ्यपुस्तकों को बदले जाने के बाद आने वाले पांच वर्षों में विद्यालय छोड़कर जाने वालों का अनुपात 56 प्रतिशत से बढ़कर 80 प्रतिशत हो जाएगा। हमें शिक्षकों की गुणवत्ता की ज़मीनी वास्तविकता भी देखनी होगी कि क्या वे नए पाठ्यक्रमों को पढ़ाने में सक्षम हो पाएंगे?


विद्यालयों का भविष्य- आर्थिक व्यवहार्यता संदेह में

विद्यालयों को अर्थव्यवस्था में सुधार के लिए एक महत्त्वपूर्ण उपाय के रूप में इस्तेमाल किया गया है। उन्हें बच्चों को विकास करना व ऐसी नौकरियां लेना सिखाना चाहिये जिसमें शिक्षा की आवश्यकता हो। ये नौकरियां अच्छा वेतन देने वाली होती हैं और इस तरह वे देश की अर्थव्यवस्था बढ़ाती हैं। हालांकि सरकार स्वयं विद्यालयों की अर्थव्यवस्था के बारे में कभी नहीं सोचती है। उनके वित्तीय दृष्टिकोण से विद्यालयों के आने वाले 5 वर्षों के लिए मेरा पुर्वानुमान हैः

1. हर शिक्षक का वेतन बढ़ेगाः 7वां वेतन आयोग शिक्षकों के वेतन को 20 प्रतिशत से 35 प्रतिशत तक बढ़ा देता है। फिर लगभग 13 प्रतिशत से वार्षिक तौर पर वेतन बढ़ेगा जब तक अन्य वेतन आयोग नहीं बन जाता। इसका अर्थ है कि उसी शिक्षक को उतने ही समय में वही कार्य करने के लिए अधिक भुगतान किया जाएगा। शिक्षक की उत्पादकता या गुणवत्ता में कोई सुधार नहीं है-केवल वेतन बढ़ेगा। शिक्षक के जीवनयापन की लागत में वृद्धि हुई है इसलिए वेतन की यह वृद्धि उचित हो सकती है परंतु हम यहां पर उस विषय की चर्चा नहीं कर रहे हैं।

2. कुल कर्मचारियों की संख्या में वृद्धि होगीः पिछले कुछ वर्षों में सीबीएसई शिक्षण व गैर शिक्षण कर्मचारियों का रोज़गार अनिवार्य कर रहा है। उदाहरण के लिए, परामर्शदाता, विशेष शिक्षक, आत्मरक्षा शिक्षक की भर्ती व इस तरह के कई पदों की रचना सीबीएसई द्वारा की गई है। यह विद्यालय के संपूर्ण वेतन व्ययों को बढ़ा देता है।

3. 25 प्रतिशत सीटें आरटीई के बच्चों के लिए आरक्षित हैं। निर्धन बच्चों को अनिवार्य रूप से निःशुल्क शिक्षा दी जानी है। सरकार बच्चे के लिए केवल नाममात्र की लागत की प्रतिपूर्ति करेगी। यह बोझ स्वाभाविक रूप से विद्यालय पर पड़ेगा क्योंकि उनकी कुल शुल्क वसूली 25 प्रतिशत कम हो जाएगी। अभी बच्चों की संख्या 25 प्रतिशत क्षमता तक नहीं पहुंची है हालांकि यह स्पष्ट संकेत है कि आने वाले 5 वर्षों में ऐसा होगा।

4. शिक्षकों को निरंतर प्रशिक्षण की आवश्यकता हैः शिक्षकों को निरंतर प्रशिक्षण की आवश्यकता है क्योंकि दुनियाभर में शिक्षा का क्षेत्र बड़ी तेज़ी से बड़ रहा है। जल्दी व बेहतर पढ़ाने के लिये नई तकनीकें हैं जिनका पता लगाने की व शिक्षकों को सिखाने की आवश्यकता है। इसमें बहुत से पैसों की आवश्यकता है। यह अनुमानित है कि विद्यालयों को शिक्षकों के प्रशिक्षण के लिए उनके वेतन के 10 प्रतिशत का बजट होने की आवश्यकता है।

5. अवसंरचना की गुणवत्ता में वृद्धि होना चाहियेः विद्यालय की इमारत व प्रौद्योगिकी को लगातार सुधारने की व बनाए रखने की आवश्यकता है। 5 वर्ष पहले विद्यालय में कोई सीसीटीवी केमरे नहीं हुआ करते थे -परंतु आज के विद्यालयों के लिए यह अनिवार्य है। यह केवल एक उदाहरण है कि विद्यालयों को किसमें निवेश करने की आवश्यकता है।

6. विद्यालयों से अभिभावकों की अपेक्षा बढ़ती ही रहती हैः अभिभावक विद्यालय से आशा रख रहे हैं कि वे सीबीएसई द्वारा अनिवार्य पाठ्यक्रम के अलावा भी कई वस्तुएं सिखाएं। विद्यालयों को शिष्टाचार, अंग्रेज़ी में बात करना व कई अन्य वस्तुएं सिखानी चाहिये। हर वस्तु में पैसे नहीं लगते पर बहुत सी वस्तुओं में लगते हैं।

7. शुल्क में वृद्धि को 10 प्रतिशत पर नियंत्रित किया जाता हैः उन्हीं अभिभावकों से विद्यालय द्वारा लिये जाने वाले शुल्क को 10 प्रतिशत तक सीमित कर दिया गया है। तो जहां विद्यालय के खर्च वर्ष दर वर्ष 20 प्रतिशत से अधिक से बढ़ रहे हैं उनकी आय केवल 10 प्रतिशत से बढ़ेगी- इसका परिणाम क्या होगा?

जब तक सरकार स्वयं द्वारा वित्तपोषित विद्यालयों के प्रति उसका रवैया नहीं बदलती मुझे यकीन है कि अगले पांच वर्षों में निजी विद्यालय कष्ट भुगतने वाले हैं व निजी विद्यालयों की गुणवत्ता सरकारी विद्यालयों से भिन्न नहीं होगी। यह भारतीय अर्थव्यवस्था पर दीर्घकालीन प्रभाव डालेगा व भारत को 15 वर्ष पीछे धकेल देगा।

महाविद्यालयों में शुल्क समीति ने भारतीयों को विदेशी शिक्षा के क्षेत्र में 13 बिलियन खर्च करने के लिए प्रेरित किया है।

एसोचैम, सामाजिक विज्ञान के टाटा संस्थानों व आईआईएम-बी द्वारा किए गए कई अध्ययन इस निष्कर्श पर पहुंचे हैं कि विदेश में अध्ययन करने जाने वाले भारतीयों में जबरदस्त उछाल है। सांख्यिकी का यूनेस्को संस्थान और अंतर्राष्ट्रीय शिक्षा का संस्थान भी संख्या देते हैं जो साबित करते हैं कि 10 वर्ष की अवधि में विदेश में पढ़ने वाले विद्यार्थियों की संख्या में लगभग 250 प्रतिशत उछाल है। विदेशी मुद्रा का आधिकारिक बहिर्वाह 6 बिलियन डॉलर से 17 बिलियन डॉलर के मध्य कहीं होने का अनुमान लगाया गया है। दुर्भाग्यपूर्ण बात यह है कि विदेश में पढ़ने वाले अधिकांश विद्यार्थी वहीं बस जाते हैं व विदेशी राष्ट्र को कर देना प्रारंभ कर देते हैं। जहां वे भारत में रियायती प्रारंभिक शिक्षा प्राप्त करते हैं-जब सरकार को करों के माध्यम से सब्सिडी चुकाने की बारी उनकी होती है, वे उसे और कहीं चुकाते हैं। विदेशी शिक्षा ना केवल भारत का वर्तमान विदेशी मुद्रा भंडार को लूट लेती है बल्कि उसके भविष्य की आय को भी। लगातार बड़े पैमाने पर पलायन के अप्रत्यक्ष प्रभावों का व उस राशि का जो अभिभावक विदेश में पढ़ रहे उनके बच्चों से मिलने जाने के लिए खर्च करते हैं, हमें अंदाजा ही नहीं है।

विद्यार्थियों के विदेश जाने का मुख्य कारण भारत में गुणवत्ता शिक्षा की कमी है। आईआईटी में सीमित सीटें होती हैं व वे अत्यधिक प्रतिस्पर्धी होती हैं। अन्य महाविद्यालय भी हैं हालांकि उनमें भी सीटें सीमित होती हैं व पाठ्यक्रम एवं शिक्षा शास्त्र पुराने होते हैं। इस समस्या की जड़ मुक्त बाज़ार को शिक्षा के क्षेत्र में उसकी भूमिका अदा करने की अनुमति नहीं दी जाना है। महाविद्यालय शुल्क समिति के द्वारा विनयिमित किए जाते हैं। तो वे इतना शुल्क नहीं ले सकते जितना लोग भुगतान करने को तैयार हैं। शुल्क समिति केवल कीमत की वसूली की अनुमति देती है। तो महाविद्यालय उनके स्वयं के अधिशेष से नई क्षमता नहीं बना सकते। भारत में बढ़ते महाविद्यालय या तो दान द्वारा अथवा सरकार के वित्तपोषण द्वारा वित्तपोषित हैं। यह आय का एक गैर टिकाऊ स्त्रोत है। यह अभी या बाद में सूख जाता है व पूर्ण करने के लिए कई स्थितियों के साथ आता है।

हावर्ड विश्वविद्यालय 380 वर्ष पुराना है व इसमें 5.2 प्रतिशत की स्वीकृति दर है। 21000 विद्यार्थी 210 एकड़ की भूमि में अध्ययन करते हैं अर्थात 100 विद्यार्थी प्रति एकड़। आईआईएम-ए-जिसे हावर्ड विश्वविद्यालय द्वारा स्थापित किया गया था, जो 55 वर्ष पुराना है व उसमें 1 प्रतिशत से कम की स्वीकृति दर है व 106 एकड़ में 494 विद्यार्थी पढ़ते हैं जिसका अर्थ है प्रति एकड़ 4। तो इस स्थिति में गलत क्या है? भारत कम संसाधनों के साथ एक घनी आबादी वाला देश है। हम भूमि की एक ही मात्रा में कम विद्यार्थियों को किस प्रकार पढ़ा सकते हैं जबकि हज़ारों लोग इन सीटों का इंतज़ार कर रहे हैं।

शुल्क समीति महाविद्यालयों का शुल्क निश्चित करती है, यह शुल्क का निर्धारण एक महाविद्यालय चलाने की कीमत के आधार पर करती है, जो लाभ यह विद्यार्थियों को देता है उसके आधार पर नहीं। ये कीमतें कभी कभी अधिक अनुमानित होती हैं व कभी कम। इसके अलावा, अच्छे महाविद्यालयों को बेहतर बनाने के लिए कोई प्रोत्साहन नहीं दिया जाता। चाहे वे कितने ही अच्छे बन जाए- वे एक ही शुल्क ले सकते हैं। इस समस्या का एक आसान समाधान महाविद्यालयों पर किसी भी तरह का शुल्क नियमन हटा लेना है। केवल प्रशासनिक विनियमन होना चाहिये व उनके पूर्व छात्रों के प्लेसमेंट पर पूर्ण पारदर्शिता होनी चाहिये। यह स्वतः ही महाविद्यालयों का स्तर सुधार देगा व उन्हें लगातार अपने पाठ्यक्रम संरचना को संशोधित करने में सक्षम करेगा ताकि उनके विद्यार्थियों को अच्छी नौकरियां प्राप्त हो सके। जब विद्यार्थियों को एक विशेष वेतन पर रखा जाएगा। यह भारत में शिक्षित बेरोज़गारों की संख्या को कम करेगा व महाविद्यालयों को उन मूल्य संवर्धन के आधार पर शुल्क लेने में सहायता करेगा जो वे उनके विद्यार्थियों की अर्जन क्षमता सुधारने के लिए करते है। 

बच्चे और टीवी

बच्चों के लिए छुट्टियों का अर्थ है टीवी देखने का समय-सरकार को कदम उठाने की आवश्यकता है। गुजरात में दिवाली की छुट्टियों का अर्थ है 15 से 20 दिन की छुट्टियां। अधिकांश व्यापार भी लगभग एक सप्ताह तक बंद रहते हैं और कई अभिभावक अपने बच्चों को छुट्टियों में घुमाने ले जाते हैं। जब तक विद्यालय बंद रहते हैं, उतने सभी दिनों तक अभिभावकों की छुट्टियां नहीं होतीं, इसलिए बच्चे घर पर स्वतंत्र होते हैं और उनके पास करने के लिए अधिक कुछ होता नहीं है। इसलिए लगभग 90 प्रतिशत बच्चे दिन में 3 घंटों से अधिक समय तक टी.वी देखते हैं। यह बहुत से अभिभावकों के लिए एक समस्या है। हालांकि सरकार इस समस्या को एक अवसर में बदल सकती है।

संयुक्त राज्य में सरकार ने 1990 में बच्चों की टीवी के लिए एक विनियमन लागू किया था। तो बच्चों के लिए किसी भी टीवी चैनल को इन नीयमों का पालन करना होगाः

  1. बच्चों के कार्यक्रम केवल सुबह 7 बजे से रात के 10 बजे तक प्रसारित होने चाहिये।
  2. प्रति सप्ताह तीन घंटे के कार्यक्रम प्रसारित किए जाने चाहिये जिसमें मनोरंजन के साथ या तो बच्चों के लिए शिक्षा अथवा जानकारी होनी चाहिये।
  3. ऐसे कार्यक्रमों पर ई/आई का चिन्ह लगा होना चाहिये।
  4. लंबाई में कम से कम तीस मिनट होना चाहिये एवं उसकी तारीख व समय को पहले से सूचित किया जाना चाहिये।
  5. चैनल प्रति घंटे केवल 10 से 12 मिनट के विज्ञापन दिखा सकता है।
  6. कार्यक्रमों का मुख्य उद्देश्य वाणिज्यिक प्रयोजन नहीं है।
  7. कार्यक्रम के दौरान कोई भी वेबसाइट प्रदर्शित नहीं की जानी चाहिये।

इन नीयमों पर अधिक जानकारी इस पर उपलब्ध हैः

भारत को ऐसे नियमों की आवश्यकता है। हमारे टेलिविज़न कार्यक्रम बच्चों की सहायता नहीं कर रहे बल्कि उन्हें नुकसान पहुंचा रहे हैं। आज के बच्चे भीम को को उनके माता पिता की अवधारणा से बिल्कुल भिन्न चरित्र के रूप में जानते हैं। छोटा भीम की महाभारत के भीम के साथ केवल एक ही समानता है। लड्डू के प्रति उसका प्रेम। रोल नम्बर 21-कृष्ण की एक पूर्णतः गलत छाप देता है और बच्चे उसे बहुत पसंद करते हैं। यदि आप सेसम स्ट्रीट व डिज़्नी क्लब हाउस देखें तो आप पाएंगे कि वहां मनोरंजन के साथ ही बहुत सारी शैक्षिक सामग्री भी मौजूद होती है। यहां तक कि ऐसे टीवी कार्यक्रमों ने कुछ क्षणों तक दर्शक द्वारा प्रतिक्रिया देने का इंतज़ार करते हुए कार्यक्रम के पात्रों के मध्य बातचात को लागू किया है। डोरा दि एक्सप्लोरर एवं जेक दि नेवरलैंड पाइरेट्स काफी संवादात्मक कार्यक्रम हैं भले ही वे सूचना के आधार पर सीमित हैं।

सरकार को भारतीय टीवी सेगमेंट का विनियमन करना होगा अन्यथा बच्चों के मस्तिष्क का विकास प्रभावित होगा। बगैर किसी शारीरिक गतिविधि के घंटों तक टीवी देखने से बच्चों की सेहत के लिए समस्याएं उत्पन्न हो जाएंगी। इसके अलावा बेकार कार्टून मस्तिष्क की स्पष्ट रूप से सोचने की क्षमता को भी प्रभावित करते हैं। एक बच्चा जो प्रतिदिन 2 घंटे से अधिक टीवी देखता है, उसे 15 मिनट से अधिक देर टीवी ना देखने वाले बच्चे से कम रचनात्मक पाया गया है। मुझे आश्चर्य होता है कि डोरेमोन बच्चों को कौन से शिक्षाप्रद मूल्य प्रदान करता है? अंग्रेज़ी कार्टून देखने से बच्चों के अंग्रेज़ी बोलने के कौशल में सुधार हो सकता था परंतु वे भी अनुवादित हैं व हिन्दी में उपलब्ध हैं। इससे, थोड़ा बहुत लाभ जो वे दे सकते थे वह भी समाप्त हो जाता है!

यदि अभिभावकों के पास बच्चे को उत्पादक रूप से संलग्न करने के लिए कोई वैकल्पिक साधन नहीं है तो वे भी समान रूप से दोषी हैं। एकल परिवारों में पर्याप्त चचेरे व सगे भाई-बहन नहीं होते एवं कॉलोनी में दोस्त अधिक नहीं होते हैं जिनके साथ बच्चे खेल सकें। पज़ल, वर्ग पहेली, सुडोकु, शब्द खोज, बोर्ड खेल, कला व शिल्प, चित्रकारी व पुस्तकें पढ़ने को भी बढ़ावा दिया जाना चाहिये।