Friday 4 November 2016

महाविद्यालयों में शुल्क समीति ने भारतीयों को विदेशी शिक्षा के क्षेत्र में 13 बिलियन खर्च करने के लिए प्रेरित किया है।

एसोचैम, सामाजिक विज्ञान के टाटा संस्थानों व आईआईएम-बी द्वारा किए गए कई अध्ययन इस निष्कर्श पर पहुंचे हैं कि विदेश में अध्ययन करने जाने वाले भारतीयों में जबरदस्त उछाल है। सांख्यिकी का यूनेस्को संस्थान और अंतर्राष्ट्रीय शिक्षा का संस्थान भी संख्या देते हैं जो साबित करते हैं कि 10 वर्ष की अवधि में विदेश में पढ़ने वाले विद्यार्थियों की संख्या में लगभग 250 प्रतिशत उछाल है। विदेशी मुद्रा का आधिकारिक बहिर्वाह 6 बिलियन डॉलर से 17 बिलियन डॉलर के मध्य कहीं होने का अनुमान लगाया गया है। दुर्भाग्यपूर्ण बात यह है कि विदेश में पढ़ने वाले अधिकांश विद्यार्थी वहीं बस जाते हैं व विदेशी राष्ट्र को कर देना प्रारंभ कर देते हैं। जहां वे भारत में रियायती प्रारंभिक शिक्षा प्राप्त करते हैं-जब सरकार को करों के माध्यम से सब्सिडी चुकाने की बारी उनकी होती है, वे उसे और कहीं चुकाते हैं। विदेशी शिक्षा ना केवल भारत का वर्तमान विदेशी मुद्रा भंडार को लूट लेती है बल्कि उसके भविष्य की आय को भी। लगातार बड़े पैमाने पर पलायन के अप्रत्यक्ष प्रभावों का व उस राशि का जो अभिभावक विदेश में पढ़ रहे उनके बच्चों से मिलने जाने के लिए खर्च करते हैं, हमें अंदाजा ही नहीं है।

विद्यार्थियों के विदेश जाने का मुख्य कारण भारत में गुणवत्ता शिक्षा की कमी है। आईआईटी में सीमित सीटें होती हैं व वे अत्यधिक प्रतिस्पर्धी होती हैं। अन्य महाविद्यालय भी हैं हालांकि उनमें भी सीटें सीमित होती हैं व पाठ्यक्रम एवं शिक्षा शास्त्र पुराने होते हैं। इस समस्या की जड़ मुक्त बाज़ार को शिक्षा के क्षेत्र में उसकी भूमिका अदा करने की अनुमति नहीं दी जाना है। महाविद्यालय शुल्क समिति के द्वारा विनयिमित किए जाते हैं। तो वे इतना शुल्क नहीं ले सकते जितना लोग भुगतान करने को तैयार हैं। शुल्क समिति केवल कीमत की वसूली की अनुमति देती है। तो महाविद्यालय उनके स्वयं के अधिशेष से नई क्षमता नहीं बना सकते। भारत में बढ़ते महाविद्यालय या तो दान द्वारा अथवा सरकार के वित्तपोषण द्वारा वित्तपोषित हैं। यह आय का एक गैर टिकाऊ स्त्रोत है। यह अभी या बाद में सूख जाता है व पूर्ण करने के लिए कई स्थितियों के साथ आता है।

हावर्ड विश्वविद्यालय 380 वर्ष पुराना है व इसमें 5.2 प्रतिशत की स्वीकृति दर है। 21000 विद्यार्थी 210 एकड़ की भूमि में अध्ययन करते हैं अर्थात 100 विद्यार्थी प्रति एकड़। आईआईएम-ए-जिसे हावर्ड विश्वविद्यालय द्वारा स्थापित किया गया था, जो 55 वर्ष पुराना है व उसमें 1 प्रतिशत से कम की स्वीकृति दर है व 106 एकड़ में 494 विद्यार्थी पढ़ते हैं जिसका अर्थ है प्रति एकड़ 4। तो इस स्थिति में गलत क्या है? भारत कम संसाधनों के साथ एक घनी आबादी वाला देश है। हम भूमि की एक ही मात्रा में कम विद्यार्थियों को किस प्रकार पढ़ा सकते हैं जबकि हज़ारों लोग इन सीटों का इंतज़ार कर रहे हैं।

शुल्क समीति महाविद्यालयों का शुल्क निश्चित करती है, यह शुल्क का निर्धारण एक महाविद्यालय चलाने की कीमत के आधार पर करती है, जो लाभ यह विद्यार्थियों को देता है उसके आधार पर नहीं। ये कीमतें कभी कभी अधिक अनुमानित होती हैं व कभी कम। इसके अलावा, अच्छे महाविद्यालयों को बेहतर बनाने के लिए कोई प्रोत्साहन नहीं दिया जाता। चाहे वे कितने ही अच्छे बन जाए- वे एक ही शुल्क ले सकते हैं। इस समस्या का एक आसान समाधान महाविद्यालयों पर किसी भी तरह का शुल्क नियमन हटा लेना है। केवल प्रशासनिक विनियमन होना चाहिये व उनके पूर्व छात्रों के प्लेसमेंट पर पूर्ण पारदर्शिता होनी चाहिये। यह स्वतः ही महाविद्यालयों का स्तर सुधार देगा व उन्हें लगातार अपने पाठ्यक्रम संरचना को संशोधित करने में सक्षम करेगा ताकि उनके विद्यार्थियों को अच्छी नौकरियां प्राप्त हो सके। जब विद्यार्थियों को एक विशेष वेतन पर रखा जाएगा। यह भारत में शिक्षित बेरोज़गारों की संख्या को कम करेगा व महाविद्यालयों को उन मूल्य संवर्धन के आधार पर शुल्क लेने में सहायता करेगा जो वे उनके विद्यार्थियों की अर्जन क्षमता सुधारने के लिए करते है। 

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