Tuesday 6 September 2016

यातायात सुरक्षा: क्या विद्यालय बदलाव ला सकते हैं?

हाल ही में विद्यालय से घर लौटने के दौरान दो लड़कों की मृत्यु हो गई व इससे देश की एक महत्त्वपूर्ण समस्या सामने आई -सड़क दुर्घटनाएँ व मृत्यु।

आँकडे़ बहुत गंभीर हंै- भारत में हर घंटे 15 व्यक्तिों की मृत्यु होती है व प्रतिदिन 20 बच्चों की। दुर्घटनाओं के कारण विकलांग होने की संख्या - प्रतिवर्ष लगभग 5 लाख। पूरे विश्व में बुरे सड़क सुरक्षा आँकड़ों में चीन के बाद दूसरा स्थान भारत का ही स्थान है। हमारे पास विश्व के 1 प्रतिशत वाहन हैं परंतु 10 प्रतिशत दुर्घटना जनहानी!
तो विद्यालय, अभिभावक व राष्ट्र इन मृत्यु व विकलांगता को कम करने के लिए सामान्यतः क्या कर सकते हैं?

24.9 प्रतिशत मृत्यु दुपहिया वाहन पर होती है। दुपहिया वाहन पर मौत को रोकने का एक आसान उपाय है -हेलमेट। मैंने दुपहिया वाहन से होने वाली जितनी भी मौतों के बारे में सुना है उनमें से अधिकांश में पीड़ित ने हेलमेट नहीं पहना था। मुझे लगता है कि विद्यालय व अभिभावक हेलमेट अनिवार्यता आसानी से लागू कर सकते हैं।

10.8 प्रतिशत मृत्यु कार में होती हैं। कार में हानी को कम करने का आसान रास्ता सीट बेल्ट हैं। यू.के. का एक शोध बताता है कि कार के सीट बेल्ट, कार की पहली सीट की मृत्यु के 45 प्रतिशत को रोकते हैं। साथ ही, एयर बैग का सुरक्षा तंत्र तब ही सक्रिय होता है जब व्यक्ति ने सीट बेल्ट पहना हो। 1994 से भारत में पहली सीट में

सीट बेल्ट का होना अनिवार्य है और उसके बीस वर्षों बाद भी- 99 प्रतिशत लोग उन्हें नहीं पहन रहे हैं।
सीट बेल्ट व हेलमेट जैसे सुरक्षा उपकरण का उपयोग मृत्यु दर को सीधे कम करता है। हर सड़क दुर्घटना की सूचना देते समय समाचार पत्र के संवाददाताओं को यह उल्लेख करना चाहिए कि 50 प्रतिशत मृत्यु सुसाध्य क्षति से हुई है, परंतु समय पर ईलाज नहीं दिया गया। कुछ दूरस्थ स्थान होने की वजह से हो सकते है, तद्यपि यदि सभी नागरिकों को उचित प्रशिक्षण दिया जाए कि एक सड़क दुर्घटना का सामना होने पर क्या किया जाना चाहिए, उस से कई लोगों की जान बच जाएगी। यदि वे रिपोर्टिंग (सूचना) कर रहे हैं, उन्हंे प्रक्रिया व बाधाएँ पता होनी चाहिए। मुझे यकीन है कि कोई भी व्यक्ति 108 पर फोन करेगा यदि उस पर दुर्घटना का आरोप ना लगाया जाए।

शराब पीकर वाहन चलाना भी सड़क दुर्घटना मृत्यु का एक अन्य प्रमुख कारण है। गुजरात में निषेध होने के कारण यहाँ शराब की वजह से होने वाली दुर्घटनाओं की संख्या बहुत कम है। उसका सबूत यह है कि भारत में सड़क दुर्घटना के शीर्ष 10 शहरों में गुजरात का एक भी शहर नहीं है। अहमदाबाद से छोटे शहर जैसे नासिक, जयपुर, कोच्चि, तिरूवनंतपुरम में सड़क दुर्घटना क्षति होने की संख्या अधिक है और इन सभी स्थानों में निषेध नहीं है। एक आसान समाधान, आपके रक्त में अल्केहोल का स्तर उच्च होने पर, ओला/उबेर जैसी टैक्सी सेवाओं का उपयोग करना है।

यातायात नियमों का पालन करना एक अन्य प्रमुख क्षेत्र है जिसमें भारत को सुधार करने की आवश्यकता है। गति सीमा के भीतर वाहन चलाना, सड़क संकेतों पर रूकना, व सही ओर गाड़ी चलाना, ये आसान से नियम हैं जिन से मृत्यु से बचाव किया जा सकता है।

बच्चों को उचित व्यक्तियों का अनुकरण करना चाहिए। अतिशीघ्र गाड़ी चलाने वाले व सड़क पर करतब करने वाले व्यक्ति वे हैं जिन्हें उनके परिवार की परवाह नहीं है। माता पिता के सड़क पर मरने के बाद बच्चे अकेले रह जाते हैं। उन्हें मानव जीवन का मूल्य समझाया जाना चाहिए व ऐसा करने पर वे बड़े होकर ज़िम्मेदार नागरिक बनेंगे।

क्यों ‘‘बोर्ड’’ की परीक्षाएं अधिक होनी चाहिए?

जब भी कोई ‘बोर्ड’ परीक्षा शब्द का उल्लेख करता है, वयस्कों को भयावह अनुस्मरण हो जाते हैं। यहाँ तक कि वे बच्चे जिन्होंने कभी बोर्ड परिक्षाओं का अनुभव नहीं किया, उन्होंने भी इसके विषय में इतनी कहानियाँ सुनी है कि वे भी भयभीत हो जाते हैं। तो वर्तमान में हमारे पास बोर्ड़ की दो परिक्षाएँ हैं। पहली 10वीं में व दूसरी 12वीं में है। सी.बी.एस.सी. ने उन्ही विद्यालय के शिक्षकों से उत्तरपुस्तिका का मूल्यांकन करवा कर 10वीं बोर्ड परीक्षा के महत्त्व को कम करने का प्रयास किया है। खैर हम जानने का प्रयास करते हैं कि बोर्ड परीक्षाएँ करतीं क्या हैं?

  • यह सभी बच्चों का मूल्यांकन समान स्तर पर करती है इसलिए समग्र राष्ट्र (या राज्य) के बच्चों का मूल्यांकन एक ही प्रश्नपत्र व एक ही अंकन स्वरूप के आधार पर किया जा सकता है व उनका परिणाम एक साथ ही घोषित किया जाता है। इससे महाविद्यालय को यह निर्णय लेने में सहायता मिलती है कि किसे प्रवेश दिया जाना है।
  • यह अभिभावकों को विद्यालय के प्रदर्शन का मूल्यांकन करने में सहायता करती है कि क्या विद्यालय अच्छी तरह से पढ़ा रहा है। 

मुझे लगता है कि बोर्ड परीक्षाएँ विभिन्न कारणों से हर वर्ष ली जानी चाहिए (5वीं कक्षा के बाद)।

पहला यह कि इससे विद्यार्थी 12वीं कक्षा की कड़ी चुनौती का सामना करने के लिए प्रशिक्षित हो जाते हैं जिसके आधार पर उनके भविष्य का निर्णय होगा। इस प्रकार वे सभी तैयार रहेंगे।

दूसरा, उसी शिक्षक द्वारा पढ़ाया जाना व उसी के द्वारा मूल्यांकन किए जाने से हितों का टकराव पैदा होता है। ‘‘मोसल मा जमवानु अने मां पिरसनार’’। शिक्षिका उन्हीं प्रश्नों को दोहराते हुए पढ़ा सकती है जिन्हें वह परीक्षा में पूछने वाली है। ऐसे मामले हुए हैं जहाँ अंक प्रदान करने में शिक्षक उदार रहे हैं।

तीसरा, अभिभावक और अधिक प्रभावी ढंग से विद्यालय चुन सकते हैं, जब ऐसे परिणाम प्रकाशित होते हैं। तो वे मुल्यांकन कर सकते हैं कि कौन-सा विद्यालय वास्तव में अच्छी शिक्षा प्रदान करता है व उन्हें किस विद्यालय में उनके बच्चे को रखना चाहिए।

मेरा विचार है कि यदि सरकार एक समान प्रश्न पत्र का निर्णय ले व अन्य विद्यालय के  शिक्षकों से अज्ञात रूप से मुल्यांकन करवाएं, अभिभावक वास्तव में निष्पक्ष रूप से बच्चे व विद्यालय के प्रदर्शन का मूल्यांकन करने में सक्षम होंगे। मैंने यह भी देखा है कि ऐसी परिक्षाएं पाठ्यक्रम के बेहतर गठन में सहायक हो सकती हैं। उन अवधारणाओं को पाठ्यपुस्तक में अच्छी तरह से शामिल करने की आवश्यकता है जिन्हंे अधिकांश विद्यालय के बच्चे समझ नहीं पाते हैं। निरंतर बुरे परिणामों वाले विद्यालयों का अधिक निरीक्षण किया जाना चाहिए व उनके स्तर को सुधारने के लिए समय पर सहायता दी जानी चाहिए।

हमें शिक्षक के वेतन व प्रोत्साहन (इंसेंटिव) को विद्यार्थियों के प्रदर्शन के साथ जोड़ना चाहिए ताकि अच्छे शिक्षकों को पुरस्कृत किया जाए व कमतर प्रदर्शन वाले शिक्षक प्रमाणित सफल शिक्षक से सीख सकें। अन्य महत्त्वपूर्ण प्रदर्शन मापक जो तभी किया जा सकता है जब यह तंत्र उस योग्य हो ‘‘सुधार माप’’ तो यदि गणित का एक 8वीं कक्षा के शिक्षक को ऐसे विद्यार्थी प्राप्त होते हैं जिनका 7वीं कक्षा का मानक औसत परिणाम मान लीजिए 40 प्रतिशत था। यह मेहनती और बुद्धिमान शिक्षक उन परिणामों को मान लीजिए 60 प्रतिशत के औसत तक लेकर आया। शहर भर में 8वीं कक्षा के अन्य शिक्षक औसत परिणामों में केवल 5 प्रतिशत का ही सुधार ला पाने में सक्षम हुए, तब स्पष्ट तौर पर, परिणाम में 15 प्रतिशत की बढ़ोतरी उस विशेष शिक्षक की वजह से ही हुई है एवं अन्य शिक्षकों को भी अच्छा प्रदर्शन करने के लिए प्रेरित करने के लिए उसे इंसेंटिव दिया जाना चाहिए।

प्रवेश खुला है -परंतु कहां आवेदन दिया जाए?

दीवाली समाप्त हो चुकी है और अधिकांश विद्यालयों ने प्रवेश प्रक्रिया प्रारंभ कर दी है। आप एकाएक ही समाचारपत्रों और होर्डिंगों में विभिन्न विद्यालयों के विषय में विज्ञापन देखेंगे जो यह घोषणा करते हैं कि अगले शैक्षणिक वर्ष के लिए प्रवेश अब खुल चुके हंै। अधिकांश अभिभावक जो अपने बच्चे की शिक्षा प्ले ग्रुप या नर्सरी में आरंभ करवाना चाहते हैं, वे किसी न किसी विद्यालय पर विचार करने में व्यस्त हो जाते हैं। ऐसे भी कुछ अभिभावक हैं जो उनके बच्चे के वर्तमान विद्यालय से असंतुष्ट हैं व दूसरे विद्यालय में स्थानांतरित होने में रूचि रखते हैं, और आवेदन करने के लिए यही सबसे उपयुक्त समय है।

पहले बच्चे के अभिभावकों के लिए सबसे बड़ी दुविधाओं में से एक पूर्व विद्यालय व पूर्ण प्राथमिक विद्यालय का चयन करना है।

लगभग 7 वर्षों से छोटे पूर्व विद्यालय शहर के विभिन्न नुक्कड़ों व कोनांे में खुल चुके हैं। ऐसे विद्यालय सामान्यतः प्ले ग्रुप, नर्सरी व जूनियर के.जी. प्रदान करते हैं। कभी-कभी वे सीनियर के.जी. भी प्रदान करते हैं। वे पूर्व विद्यालयों की एक श्रंृखला से संबद्ध होते हैं या फिर एकल भी हो सकते हैं। वे स्थान की एक बड़ी सुविधा प्रदान करते हैं क्योंकि वे आमतौर पर अधिकांश आवासीय क्षेत्रों के 2-3 किलोमीटर के भीतर होते हैं। दुर्भाग्य से उनकी कुछ ख़ामियाँ भी हैं। पहली ख़ामी यह है कि ये शिक्षा का अनियंत्रित क्षेत्र है। इसमें कोई भी पाठ्यक्रम सरकार द्वारा निर्धारित नहीं है व बच्चों के प्रदर्शन के मूल्यांकन की कोई मानकीकृत पद्धति नहीं है। इसलिए विद्यालय ने बच्चों को वाकई पढ़ाया है या केवल उन्हें खेलने में व्यस्त रखा है, एक बड़ा प्रश्न है। यहाँ तक कि कुछ विद्यालय वर्ष में 180 दिवस कार्य भी नहीं करते और कई छुट्टियाँ दे देते हैं। कार्य दिवसों के लिए भी उनके संचालन के घंटांे की संख्या भिन्न होती है - कुछ के 3 घंटे होते हैं वहीं कुछ प्रतिदिन चार घंटे काम करते हैं। भारत में किसी भी अन्य शिक्षा विभाग को चाहे वह प्राथमिक, माध्यमिक, महाविद्यालय या व्यावसायिक पाठ्यक्रम हो, उसे पूर्व विद्यालय विभाग की तरह अनियंत्रित नहीं छोड़ दिया गया है।

दूसरी व सबसे बड़ी ख़ामी है कि बच्चे के पहली कक्षा में प्रवेश का क्या? अभिभावकों को जूनियर के.जी. के बाद एक प्राथमिक विद्यालय का चयन करना होता है। दुर्भाग्य से दुखद बात यह है कि अधिकंाश प्राथमिक विद्यालयों ने स्वयं का पूर्व विद्यालय प्रारंभ कर लिया है इसलिए उनके पास अन्य पूर्व विद्यालयों के बच्चों के लिए पहली कक्षा में रिक्त पद नहीं अथवा सीमित हंै। इस कारण से अधिकांश अभिभावकों को निचली श्रेणी के विद्यालय के लिए समझौता करना पड़ता है।

मैंने कुछ विद्यालयों से पूछा जिन्हांेने प्ले ग्रुप, नर्सरी व अन्य कक्षाओं के लिए प्रवेश खोला है। तो मैंने पूछा कि अभिभावक को प्ले ग्रुप या नर्सरी में आवेदन करने की क्या आवश्यकता है जबकि बड़ी कक्षाओं के लिए प्रवेश खुला है। मुझे ‘‘अस्वीकृति की संभावना’’ नामक एक दिलचस्प अवधारणा के विषय में पता चला। अहमदाबाद के शीर्ष 10 विद्यालयों में सबसे कम अस्वीकृति के स्तर प्ले ग्रुप/नर्सरी में है, एक सामान्य से कारण की वजह से कि उनके पास आवेदनों की तुलना में अधिक सीटे हैं। तो उदाहरण के लिए एक प्लेग्रुप में प्रवेश के लिए अस्वीकृति की संभावना 5 प्रतिशत होगी जबकि पहली कक्षा में प्रवेश के लिए अस्वीकृति की संभावना 95 प्रतिशत होगी।

मैं पाठकों को सुझाव दूँगा कि वे एक सुविज्ञ निर्णय लें व उनके बच्चों का प्रवेश प्राथमिक विद्यालयों में कम उम्र से ही करवा दें ताकि भविष्य में उनका प्रवेश सुरक्षित रहे।

क्या भविष्य में बच्चों की संख्या अधिक होगी?

विश्व की जनसंख्या 7.3 अरब है और जब से इसने 1 अरब के आंकडे को पार किया है, तबसे समीक्षक कहते आ रहे हंै कि विश्व और अधिक लोगों को नहीं रख सकता। अभी तक तो वे लोग गलत साबित हुए हैं। परंतु भविष्य में क्या होगा? वैश्विक जनसंख्या वृद्धि कब समाप्त होगी? मेरे दादाजी के 13 भाई बहन थे, मेरे पिताजी के 5 थे और मेरा एक था। मेरे पिताजी की समआयु के 99 प्रतिशत लोगों के 2 से अधिक भाई बहन होने पर भी उनके 2 से अधिक बच्चे नहीं है। तो एक पीढ़ी में क्या परिवर्तित हो गया और एक घरपरिवार में बच्चों की संख्या भारी रूप से क्यों गिर गई?

मैं प्रोफेसर हेंस रोसलिंग का एक बडा प्रश्ंासक हूँ, जिनके काफी सारे विड़ियो आॅनलाइन हैं जो इस पर प्रकाश डालते हैं कि किस प्रकार भविष्य में जनसंख्या बढ़ेगी। उनका कहना है कि एक माता के बच्चों की संख्या व उसके धर्म में अधिक संबंध नहीं है। प्रति महिला बच्चों की संख्या पर प्रभाव डालने वाले महत्त्वपूर्ण कारक हैं:

  • शिशु मृत्यु दर
  • माता की शिक्षा
  • आय में वृद्धि
  • विवाह की उम्र में वृद्धि
  • कामकाजी महिलाओं मंे वृद्धि


प्रो. रोसलिंग के अनुसार विश्व जनसंख्या 10 अरब तक पहुँच जाएगी व उस संख्या को पार नहीं करेगी। इस संख्या के पीछे उनके विभिन्न सांख्यिकीय प्रारूप हैं। तद्यपि रोचक तथ्य यह है कि हम ‘उच्चतम शिशु’ संख्या पर पहुँच चुके हैं। हम वर्तमान में बच्चों की संख्या से अधिक संख्या तक नहीं पहुँचने वाले हैं। जीवन प्रत्याशा में वृद्धि होने के कारण यद्यपि हमारे पास हमेशा से 2 अरब बच्चे थे, विश्व की कुल जनसंख्या 3 अरब और बढ़ेगी व यह संख्या वहीं कायम रहेगी।  

तो विद्यालय के लिए क्या भविष्य है? यदि विश्व में बच्चों की संख्या नहीं बढ़ने वाली तो हमंे  नए विद्यालयों की आवश्यकता क्यों है और क्या उनके पास बुनियादी ढ़ाँचे को बनाए रखने के लिए पर्याप्त बच्चे होंगे?

उत्तर है स्थानांतरण व अभिभावकों की आवश्यकताओं में परिवर्तन।

भारत का 70 प्रतिशत भाग गाँवों में रहता है। किसी भी विकसित अर्थव्यवस्था में 25 प्रतिशत से अधिक लोग गँावों में निवास नहीं करेंगे। इसलिए यदि हम आशा करें कि आने वाले 10 वर्षों में हम 50 प्रतिशत शहरीकरण प्राप्त कर लेंगे, तो हम 24 करोड़ लोगों के शहर में आकर निवास करने के विषय में बात कर रहे हैं। यदि वे 100 मुख्य शहरों में आकर रहेंगे, तो इस प्रकार हर शहर में प्रतिवर्ष 2.4 लाख लोग जुडें़गे। वे अपने साथ बच्चों को लाएँगे जिन्हें शिक्षा की आवश्यकता होगी। इसलिए शहरों में विद्यालयों का निर्माण किया जाना आवश्यक है।

एक और बड़ी समस्या माता-पिता की आवश्यकताओं में परिवर्तन है। पहले गुजराती माध्यम विद्यालयों की माँग थी। अब अंगे्रज़ी माध्यम विद्यालयों की माँग है। महानगरों में लोग सी.बी.एस.ई. विद्यालयों को प्राथमिकता देते हैं ताकि नौकरी के लिए एक शहर से दूसरे शहर में स्थानांतरित होने में कठिनाई ना आए। धनी लोग अंतराष्ट्रीय विद्यालय को प्राथमिकता देते हैं जिनका एक अलग ही स्तर होता है। इसलिए विद्यालयों को बदलते समय के साथ स्वयं को बदलना होगा। पहले तैराकी व घुड़सवारी का विद्यालय के पाठ्यक्रम का हिस्सा होना दूर की कौड़ी लग रहा था। आज कुछ विद्यालय हैं जो अभी से ही वह प्रदान कर रहे हैं और भविष्य में छोटे विद्यालय बंद हो जाएँगे व ऐसे आधुनिक विद्यालय बढ़ेंगे।

वतानुकूलित (ए.सी.) विद्यालयः एक सुविधा या आवश्यकता?

कुछ दशक पहले यथोचित प्रकाश, पंखे व शौचालय की सुविधा के साथ एक विद्यालय अधिकतर भारतीयों के लिए एक सपने के पूरा होने के समान था। मुझे याद है कि अन्य विद्यालयों से मेरे विद्यालय में आने वाले विद्यार्थी ट्यूब लाईट/पंखों की संख्या की सराहना करते थे। वर्तमान में अभिभावकांे की अपेक्षाएँ बढ़ गईं हैं। ए.सी. एक अपेक्षा बन चुका है और भारत में कई विद्यालय उसे पूरा कर रहे हंै। बच्चे स्वयं भी पहले से कहीं अधिक ए.सी. के आदी हो गए हैं। माॅल, एयरपोर्ट और स्वयं के घर, सभी वातानुकूलित हैं। सुविधाओं का आदी होना एक सामान्य बात है और बच्चे ए.सी. की सुविधा के शीघ्र ही आदी हो जाते हैं। भूमण्डलीय तापक्रम वृद्धि (ग्लोबल वार्मिंग) की वजह से तापमान सहने की क्षमता से बाहर हो गया है। बच्चों को ऐसे तापमान में खेलने के लिए कहना भी कठिन है, पढ़ाई का तो प्रश्न ही नहीं। भारतीय रेल ने 2005 में ‘‘गरीब रथ’’ प्रारंभ की, निर्धनों को ध्यान में रखकर, जैसा की नाम से ही प्रतीत होता है। यहाँ तक कि वह ट्रेन भी पूरी तरह वातानुकूलित थी। इसका अर्थ है कि अधिकारिक तौर पर ए.सी. अब कोई सुखसाधन नहीं वरन आवश्यकता है। याद रहे कि वह दस वर्ष पूर्व था।

आधुनिक सिंगापुर के संस्थापक श्री.ली कुआन इयु (जिनका हाल ही में 23 मार्च 2015 को निधन हो गया), ने उनके एक साक्षात्कार में कहा था कि उनके जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि सभी सरकारी कार्यालयों को वातानुकूलित करना थी। उन्होने कहा था कि उष्णकटिबंधीय जलवायु के लिए ए.सी. एक वरदान है व इसने उत्पादकता में वृद्धि की है। उन्होने उनके पूरे जीवन में कार्यालय के लिए ए.सी. खरीदने से अधिक महत्वपूर्ण कोई भी कार्य नहीं किया है! तो क्या विद्यालय में ए.सी. सहायता करेगा? मैंने कुछ विद्यालय प्रशासकों व शिक्षकों से बात की है जिन्हांेने हाल ही में उनके विद्यालय में ए.सी. लगवाया है। विद्यार्थियों के ध्यान की अवधि में एक बड़ा सुधार हुआ है। बच्चे कम पानी पीते हैं क्योंकि उन्हें पसीना कम आता है और इसलिए वे प्रसाधन अंतराल भी कम लेते हैं। इसके परिणामस्वरूप शिक्षा मंे अधिक समय व्यतीत होता है।

ए.सी. का एक बड़ा लाभ कक्षा के बाहर से आ रहे शोर को कम करना होगा। पंखों के हवा चीरने के शोर के कारण व्याख्यान देना भी कठिन हो जाता है। तो ए.सी. के होने पर शिक्षकों को कम चिल्लाना पडे़गा और इस प्रकार वे कम थकेंगे जिससे उनके कार्य की गुणवत्ता बढ़ेगी। ए.सी. की वजह से दरवाज़े बंद रहेंगे इसलिए मच्छरों का प्रवेश कम हो जाएगा। जैसा कि हम जानते हैं डैंगु के मामले बहुत अधिक हैं और ऐसे बचाव उपाय अपनाना आवश्यक है। भारत में वायु प्रदूषण का स्तर भी बढ़ गया है। चूंकि ए.सी. में एयर फिल्टर होता है जो हवा को साफ़ करता है, धूल के कण व प्रदूषक कम हो जाते हैं।

मुझे व्यक्तिगत तौर पर लगता है कि भारत तेज़ी से विकसित हो रहा है व अभिभावकों की अपेक्षाएँ भी तेज़ी से बदल रही हंै। यहाँ तक कि जनता की माँग पर सरकार भी स्वयं को उन्नत कर रही है। मुझे यकीन है कि वह दिन दूर नहीं जब सभी प्रथम श्रेणी के विद्यालय वातानुकूलित होंगे। यह मध्यावधि में विद्यार्थियों के शैक्षणिक प्रदर्शन पर, विद्यालय के बुनियादी ढांचे में किसी अन्य सुधार से अधिक सकारात्मक प्रभाव डालेगा।

बचपन का मोटापा: जीवनभर की एक समस्या?

मोटापा संयुक्त राज्य में सबसे बड़ी स्वास्थ्य समस्या माना जाता है। यह जीवनशैली के रोगों का एक भाग है जो आय की वृद्धि व अस्वस्थ जीवनशैली के साथ आता है। प्राथमिक कारण जितनी कैलोरी ग्रहण की गई है उतनी उपयोग ना करना, जंक फूड खाना व व्यायाम न करना है।      

एक बार रूग्ण मोटापे से ग्रसित हो चुके व्यक्तियों में से कुछ ही वज़न कम कर पाते हैं व स्वस्थ रह पाते हंै। मोटापे से ग्रसित 100 व्यक्तियों में से 10 ही वज़न कम कर पाने मंे सक्षम होते हैं व उन 10 में से केवल एक ही 5 वर्ष तक मोटापे से दूर रह पाता है।

मोटापा, मृत्यु का धुम्रपान से भी अधिक बड़ा कारण बनने वाला है। तद्यपि, धूम्रपान की लत का त्याग करना सरल है, आप खाने की लत पर किस प्रकार निगरानी रखेंगे व नियंत्रित करेंगे? यह पाया गया था कि धुम्रपान, यदि 18 वर्ष की आयु से पूर्व प्रारंभ किया गया हो तो उससे मुक्ति प्राप्त करना लगभग असंभव है, इसलिए अवयस्कों को सिगरेट बेचना वर्जित है। क्या आप आइसक्रीम बेचने वालों को स्थूल बच्चों को आइसक्रीम बेचने से रोक सकते हैं? मस्तिष्क उसी प्रकार व्यवहार करता है चाहे वह चीनी की लत हो या कोकीन की।

धूम्रपान की ही तरह, यदि बच्चा स्थूल है, तो वह वयस्क होने पर भी स्थूल ही रहेगा। इसलिए शहरी परिवारों को मोटापे के विषय में जागरूकता प्राप्त करने की व यह सुनिश्चित करने की आवश्यकता है कि बच्चे कम उम्र में ही इस समस्या से ग्रसित ना हो जाए।

क्या भारत व चीन जैसे विकासशील देशों को चिंतित होना चाहिए? हाँ। चीन में एक संतान की नीति है। बढ़ रहे सकल घरेलू उत्पाद यह सुनिश्चित कर रहे हैं कि माताएँ उनके बच्चों का अच्छे प्रकार से पालन पोषण कर रही हैं। इसी प्रक्रिया में वे स्थूल हो जाते हैं। 12 वर्ष से कम आयु के लगभग 10 प्रतिशत बच्चे स्थूल हैं। ऐसे बच्चों के लिए एक स्वस्थ वयस्क जीवन निर्वाह करना कठिन होगा।

हमें बच्चों के वज़न की देख-भाल करनी होगी। भारत एक ऐसे दौर से गुज़र रहा है जहाँ प्रति परिवार बच्चों की संख्या कम होती जा रही है व चीन के नज़दीक पहुँच रही है। परिवार की प्रयोज्य आय बढ़ती जा रही है व उसी के साथ उन्हंे उपलब्ध भोजन के विकल्प भी। मोटापे के प्रकोप के लिए सभी अग्रणी तत्व मौजूद हैं। ज़रा सी असावधानी के परिणामस्वरूप एक बड़े पैमाने पर बच्चे स्थूलकाय हो सकते हंै।

अब तक भारत की पाठ्यपुस्तकें कुपोषण व संतुलित आहार के साथ सरोकार रखती थी। किसी भी मापदंड से कुपोषित बच्चों की संख्या संभावित स्थूल बच्चों की संख्या से अधिक है। इसलिए सरकार एक ही प्रकार की पाठ्यपुस्तक संपूर्ण बोर्ड के लिए लागू नहीं कर सकती। निर्देशों का विशिष्टिकरण शिक्षक के स्तर पर किया जाना चाहिए जहाँ उन्हें विद्यार्थियों को कुपोषण व मोटापे के बीच की महीन रेखा के विषय में जागरूक करना होगा।

अभिभावक उनके बच्चों को घर में पकाया हुआ भोजन खिलाकर व उनके रोजमर्रा के जीवन में शारीरिक गतिविधियों को शामिल करके सहायता कर सकते हैं। मुझे यकीन है कि यदि अभिभावकों व बच्चों में पर्याप्त जागरूकता हो, तो हम बच्चों में मोटापे की समस्या को देश के बाहर कर सकते हैं ताकि हमारा भविष्य स्वस्थ हो।

धनी अथवा निर्धन: आपको चेरिटेबल (धर्माथ) ट्रस्ट द्वारा संचालित विद्यालयों में ही अध्ययन करना होगा।

चाहे आप मुकेश अंबानी जितने धनी व्यक्ति ही क्यों ना हों, जब तक कोई उदार व्यक्ति चेरिटेबल ट्रस्ट के अंतर्गत कोई विद्यालय नहीं खोल लेता तब तक सवाल ही नहीं उठता कि आप आपके बच्चे को शिक्षा दिलाएँगे। चाहे फीस (शुल्क) कितनी भी अधिक क्यों ना हो, या सुविधाएँ कितनी भी अच्छी क्यों ना हो, भारत मंे सभी विद्यालयों को कानूनी तौर पर ‘चेरिटेबल ट्रस्ट’ के द्वारा या सेक्शन 25 कंपनी (जिसका अर्थ है अलाभकारी) द्वारा चलाया जाना आवश्यक है। यह चेरिटेबल ट्रस्ट लाभ नहीं कमा सकते व उन्हें, जितना भी उनका अधिशेष हो, उसको संस्था के उद्देश्यों में पुनः निवेश करना होगा। इससे कुछ फर्क नहीं पड़ता की विद्यालय कितना शुल्क ले रहे हैं या कितनी सुविधाएं प्रदान कर रहे हैं। विद्यालय शहर के एक भीड़-भाड़ वाले क्षेत्र में हो सकता है या किसी दूरस्थ गाँव में हो सकता है। इकाई चाहे जहाँ भी स्थापित हो उसे ‘अलाभकारी’ (लाभ के लिए नहीं) होना चाहिए। इसका एक छोटा-सा अपवाद है हरियाणा। केवल हरियाणा प्रदेश में ही ऐसी कोई आवश्यकता नहीं है। वहाँ के विद्यालय लाभ के लिए हो सकते हैं व कंपनी/व्यक्ति/साझेदारी द्वारा संचालित किए जा सकते हैं। कुछ ऐसे उच्च श्रेणी के विद्यालय हैं जिनमें विश्व स्तर की सुविधाएं हैं, जो गुड़गांव में स्थित हंै।

ऐसी इकाइयों को आयकर में छूट दी गई है कि यह वर्ष में अर्जित अधिशेष उसी वर्ष (या अगले वर्ष) खर्च कर सकते हैं। उन्हें किसी प्रकार के आयकर का भुगतान नहीं करना होगा। आयकर अधिकारी प्रश्न उठा रहे हैं कि एक विद्यालय जो धनी व्यक्तियों की सेवा करता है, उसे आयकर से छूट क्यों मिलनी चाहिए। वातानुकूलित कक्षाओं के साथ, एक अंतर्राष्ट्रीय बोर्ड का विद्यालय जो बाॅलीवुड़ के सितारों की सेवा करता है व 10 लाख रूपए प्रतिवर्ष का शुल्क लेता है। क्या उसे कर से छूट मिलनी चाहिए? हालांकि ऐसा कोई भी कदम गैरकानूनी होगा व कार्यान्वित होने मे बहुत लंबा समय लेगा।

क्या भारत में ऐसे कानून का होना उचित है?

दोनों। उचित क्योंकि शिक्षा, मापने के लिहाज से एक कठिन सेवा है व जब तक यह अच्छी तरह नियंत्रित नहीं की जाती, इसमें धोखाधड़ी होने की बहुत संभावना है। अभिभावक यह निर्णय लेने मे सक्षम नहीं हैं कि उनके बच्चे के लिए क्या उचित है और बहुत सारे विज्ञापन देखकर भ्रमित हो सकते हैं।

एक दलील यह है कि विद्यालय को ‘‘अलाभकारी’’ (लाभ के लिए नहीं) के रूप मे संचालित करना ठीक नहीं है क्योंकि इससे निवेश बहुत कम रहता है। कोई भी निवेशक ऐसे स्थान पर निवेश करना चाहेगा जहां उसे धनराशि व आय का प्रतिफल प्राप्त हो। यदि आप धन किसी ट्रस्ट में दान करते हैं तो कोई प्रतिफल नहीं मिलता। धनराशि हमेशा के लिए चली जाएगी। इसके परिणामस्वरूप लंबी अवधि में अच्छे विद्यालयों की कमी हो जाती है। मुझे नहीं पता कि इस समस्या का सही समाधान क्या है। परंतु एक बात हम सभी निश्चित रूप से जानते हैं कि एक अच्छे विद्यालय का निर्माण करने के लिए बहुत सारी धनराशि की आवश्यकता होती है व इस क्षेत्र में करोड़ों के निवेश को आकर्षित किए बगैर हम जनसमुदाय को उच्च श्रेणी की शिक्षा प्रदान नहीं कर सकते।

क्या विद्यालयों मंे पुस्तकों का स्थान टेबलेट् ले लेंगे?


टेबलेट पी.सी. एक उपकरण है जो लैपटाॅप मोबाईल फोन के मध्य में कहीं आता है। इसका वज़न लगभग 1 किलो होता है यह लोकप्रिय साॅफ्टवेयर चलाता है। आई-पैड विश्व के सबसे सफल टेबलेट पी.सी. मंे से एक है बाज़ार में आई-पैड के साथ प्रतिस्पर्धा करते कई कंपनियों के उत्पाद हैं, फिर भी बाजार शेयर का 75 प्रतिशत आई-पैड का है। तकनीक के कई प्रशंसकों ने सोचा कि 25,000 रू. प्रति मूल्य का आई-पैड विद्यालय की पाठ्यपुस्तकों, नोटबुक कार्यपुस्तकों का स्थान ले सकता है। यह बस्ते का वज़न कम करेगा कार्य तेज़ी होशियारी से करने में बच्चों की सहायता करेगा। यदि हम यह ध्यान में रखें कि आई-पैड को हर वर्ष बदला जाना होगा तो इसकी कीमत बहुत ही अधिक होगी। परंतु यदि यह तीन वर्ष से अधिक तक सुचारू रूप से बना रहे तो इसकी कीमत भारतीय मध्यमवर्ग के लिए भी वहन करने योग्य हो जाएगी।

इसी दृष्टिकोण के साथ एल...एस.डी. - लाॅस एंजेल्स युनीफाइड स्कूल डिस्ट्रिक्ट ने 1.3 बिलीयन डाॅलर अर्थात 8600 करोड रूपए के मूल्य के आई-पैड़ खरीदे। इस प्रोग्राम को सबसे बढ़िया हार्डवेयर प्राप्त हुआ, सीधे आई-पैड निर्माताएप्पलद्वारा। अप्रेल 2010 मंे इसके लोकार्पण किए जाने के समय से ही इसे काफ़ी लोकप्रियता प्राप्त हो रही है। इसने वास्तव में टेबलेट पी.सी. व्यवसाय को जन्म दिया है। अब तक 2.6 करोड़ इकाईयों की बिक्री होने पर अब यह इतिहास में बहुत सफल उपकरण माना जाता है। उन्हांेने आई-पैड में पीयर्सन का सबसे अच्छा साॅफ्टवेयर डाला था। इससे शिक्षकों को प्रभावी रूप से पढ़ाने में विद्यार्थियों को आई-पैड पर गृहकार्य करने में सहायता मिलती। परंतु यह कार्यक्रम बुरी तरह असफल हो गया। अभी एफ.बी.आई. जाँच कर रही है कि क्या क्रय के निर्णय में कुछ अव्यवस्था थी। इस जांच का मुख्य प्रश्न यह है कि क्या इस आवश्यकता को विक्रेता द्वारा संचालित किया गया था या कर्मचारियों को वास्तव में इस तकनीक की आवश्यकता थी?

तो क्या कभी भी टेबलेट पी.सी. विद्यालय की पाठ्यपुस्तकों का स्थान ले पाएँगे?

हम टेबलेट पी.सी. की आवश्यकता के विषय में बात करते हैं। विद्यालय के बस्ते भारी होते हैं टेबलेट उसे कम कर सकता है। मनुष्य उसके शरीर के 20 प्रतिशत के बराबर भार वहन कर सकता है। विद्यालय के बस्तों का वज़न कई बार शरीर के भार के 33 प्रतिशत जितना होता है और उसके दो मुख्य कारण हैं। सामान्य से कम वज़न वाले बच्चे बस्ते मंे अनावश्यक वस्तुएँ। अब यदि हम कुपोषित बच्चों की समस्या का समाधान नहीं करेंगे तो टेबलेट पी.सी. इसका समाधान नहीं बनने वाला। साथ ही यदि विद्यार्थी इसके बाद भी, विद्यालय में अनावश्यक वस्तुएँ लाते हैं तो इसका समाधान किया जाना आवश्यक है।

हर बच्चे के लिए टेबलेट पी.सी. होने से उसे पढ़ाई के लिए संपन्न साधन की सहायता प्राप्त होगी। वास्तविक तस्वीरें, एनीमेशन, आॅडियो, विडियो की सहायता से अवधारणाओं को शीघ्र समझने में सहायता मिलेगी। हालांकि अच्छी वस्तुओं के साथ बड़ी समस्या भी आती है, विकर्षण। दुर्भाग्य से टेबलेट पी.सी. में इतनी सारी सामग्री रखी हुई होने से, जिस तक बच्चा आसानी से पहुँच सकता है, उसकी एकाग्रता भंग होती है, जिससे पढ़ाई पर प्रभाव पड़ता है।

उपरोक्त को देखने पर टेबलेट्स का निकट भविष्य मंे कक्षा तक पहुँचना कठिन लगता है।