Tuesday 13 December 2016

शिक्षा किस प्रकार भारत में पर्यटन में सहायता कर सकती है?

2015 में भारत में लगभग 80 लाख विदेशी पर्यटक आए। यह फ्रांस व संयुक्त राज्य में से प्रत्येक को प्राप्त होने वाले पर्यटकों का लगभग 10 प्रतिशत - 8 करोड़ है। भारत को विदेशी मुद्रा की अत्यंत आवश्यकता है तथा पर्यटन एक ऐसा उद्योग है जो बहुत सी विदेशी मुद्रा दे सकता है। उदाहरण के लिए, भारत को पर्यटकों से राजस्व के रूप में 21 बिलियन डॉलर प्राप्त हुए वहीं संयुक्त राज्य को 210 बिलियन डॉलर प्राप्त हुए। यह भारत जैसे देश के लिए पर्याप्त आय है।

यहां तक कि थाईलैंड जैसे देश को भी 3 करोड़ पर्यटक प्राप्त हुए जिनमें से 10 लाख भारत ने भेजे थे। तो विदेशी पर्यटकों को भारत में लाने के लिए शिक्षा का क्षेत्र क्या कर सकता है?

पर्यटन के क्षेत्र के लिए शिक्षा विभाग द्वारा दो महत्त्वपूर्ण योगदान दिए गए हैं। पहला अंग्रेजी भाषी जनशक्ति की आपूर्ति है। पर्यटन उद्योग लोगों का शारीरिक रूप से किसी देश में आना तथा गाईड, होटल वालों, वेटर, दुकानदार तथा टैक्सी ड्राइवरों से बात करने पर काफी हद तक निर्भर करता है। यदि हम हमारे लोगों को अंग्रेज़ी में बेहतर होने के लिए प्रशिक्षित करें तो हम अतिथियों को बेहतर सेवाएं दे सकते हैं व उन्हें संतुष्ट कर सकते हैं। पर्यटकों को भारत में यात्रा करते समय सहज महसूस करने की आवश्यकता है। संकेतक व निर्देश अंग्रेज़ी में होना चाहिए। भारत अब भी क्षेत्रीय भाषाओं पर बहुत निर्भर करता है व भारत में ऐसे पर्यटन स्थल हैं जहां आप एक भी अंग्रेजी संकेतक नहीं पाएंगे व भारतीय भी उन्हें नहीं समझ सकते हैं।

अन्य महत्त्वपूर्ण योगदान स्थानीय पर्यटन को बढ़ावा देना है। पर्यटन उद्योग को एक मज़बूत अवसंरचना की आवश्यकता है। सड़कें, होटल, अच्छी सुविधाएं, शौचालय, गाइड, परिवहन एवं भ्रमण स्थान। ये वस्तुएं पहले घरेलू पर्यटन के लिए विकसित की जाती है तथा उसके बाद विदेशी पर्यटकों के लिए। भारत में 125 करोड़ लोग हैं व लगभग 100 करोड़ घरेलू पर्यटन यात्राएं होती हैं। यह स्पष्ट रूप से दर्शाता है कि यदि भारत विदेशी यात्रियों को आकर्षित करना चाहता है तो पहले उसे स्थानीय पर्यटकों को खुश करना चाहिए।

तो इस चित्र में शिक्षा कहां सही बैठती है? दो शब्दों में: बड़ा सप्ताहांत। भारत धार्मिक दिनों के लिए छुट्टियां प्रदान करता है तथा अधिकांश राज्य बोर्ड विद्यालय वर्ष में 240 दिन कार्य करते हैं। इसका अर्थ है कि शनिवार कार्य-दिवस होता है तथा कोई गारंटी नहीं होती कि वर्ष में लंबे साप्ताहांत की एक विशिष्ट संख्या होगी ही। घरेलू पर्यटन तब तक पनप नहीं सकता है जब तक 3 या अधिक दिन के लंबे सप्ताहांत नहीं होंगे। यह एक समुद्र तट, पहाड़ी क्षेत्र, मनोरंजन पार्क पर एक छोटी यात्रा के लिए आदर्श समय है। एक शनिवार व रविवार के साथ संयुक्त सार्वजनिक छुट्टी एक मजेदार यात्रा के लिए आदर्श समय देगी। यह परिवार के जुड़ने का एक अच्छा अनुभव प्रदान करता है व बच्चों को नियमित जीवन से एक अंतराल मिलता है। गर्मियों व दिवाली की एक लंबी छुट्टी इतनी उपयोगी नहीं है जितनी की हर दो महीनें में तीन दिनों की छुट्टी।

यहां कुछ कदम हैं जो एक भी रूपया खर्च किए बगैर घरेलू पर्यटन को दो गुना बढ़ा सकते हैं:

1.    मानव संसाधन मंत्रालय को विभिन्न राज्य शिक्षा विभागों के साथ संगठित होना चाहिए तथा सभी विद्यालयों में 200 कार्य दिवस का आर्दश स्थापित करना चाहिए।

2.    आगामी रूप से एक कैलेंडर बनाए जहां कुछ छुट्टियां साप्ताहांत के साथ जोड़ी जा सके व स्थानीय छुट्टियों के आधार पर वर्ष में कम से कम 3 बड़े साप्ताहांत प्रदान करे। उन्हें बगैर किसी कारण के कुछ छुट्टियां शुरू करने की आवश्यकता हो सकती है।

3.    समय का प्रबंधन करें ताकि पूरे भारत को यात्रा करने के लिए समान साप्ताहांत ना प्राप्त हो। इस प्रकार पर्यटन अवसंरचना का बेहतर उपयोग होगा।

मुझे यकीन है कि लोग सरकार की सराहना करेंगे क्योंकि यह बच्चों के अध्ययन में कोई कमी ना करते हुए, तनाव कम करेगा व पारिवारिक समय को बेहतर करेगा। 

Saturday 10 December 2016

उच्च शुल्क वसूलने वाले विद्यालयों की समस्या को कैसे हल किया जा सकता है?

हम बहुत बार अभिभावकों को एक विद्यालय में हो हल्ला करते देखते हैं और कारण आमतौर पर शुल्क बढ़ाने के विरोध में प्रदर्शन होता है। अभिभावक वहां घंटों तक बैठे रहते हैं तथा फीस कम करने की मांग करते हैं। प्रबंधन अभिभावकों को शांत करने का प्रयास करता है व कई बार सरकार भी शामिल हो जाती है। यह बहुत ही बुरी स्थिति है और लगभग सभी विद्यालय जीवन में एक बार इसका सामना करते ही हैं। मौजूदा विद्यालय वाले अभिभावक फीस वद्धि का विरोध प्रदर्शन कर सकते हैं- परंतु नए विद्यालयों का क्या जिनकी फीस अधिक है? उन विद्यालयों के विरूद्ध कोई प्रदर्शन नहीं होता है तथा विकल्पों की कमी के कारण अभिभावकों को ऐसे महंगे विद्यालयों को ही चुनना पड़ता है। इस समस्या को स्थियी रूप से हल करने के लिए हम क्या कर सकते हैं?

हम भारत में दूरसंचार क्रांति से कुछ सीख सकते हैं। लगभग 20 वर्ष पहले, भारत में दूरसंचार परिदृश्य निराशाजनक था - दूरसंचार का प्रसार केवल 8 प्रतिशत था तथा संचार की लागत बहुत उच्च थी। सरकार टेलिफोन लाइन प्रदान किया करती थी एवं हमेशा एक वेटिंग लाइन रहती थी जिसमें बहुत सी गड़बड़ियां रहती थी और जो आमतौर पर ‘‘डेड” रहती थी। हालांकि वस्तुएं अब बदल गई हैं तथा प्रसार लगभग 86 प्रतिशत तक है और हमारी दरें विश्व में सबसे कम हैं। वर्तमान में, शिक्षा क्षेत्र ठीक ऐसी ही स्थिति में है। अंग्रेज़ी माध्यम विद्यालयों की संख्या बहुत कम है एवं शुल्क बहुत उच्च है। प्रवेश प्राप्त करने के लिए एक आम आदमी को कतार में खड़ा रहना होता है अथवा मोटे प्रवेश शुल्क का भुगतान करना होता है।

वे निर्णय जिन्होंने भारत में दूरसंचार उद्योग को बदल दिया, क्या उन्हें शिक्षा के लिए भी लागू किया जा सकता है? क्या एक 16 रूपए/मिनट का कॉल आजीवन मुफ्त वॉइस कॉल बन सकता है? जिन्होंने एक प्रभाव बनाया वे निर्णय थे-दूरसंचार विभाग का टूटकर वाणिज्यिक परिचालन एवं विनियमों में परिवर्तित होना। इसलिए सेवाएं देने के लिए बीएसएनएल व एमटीएनएल का गठन हुआ तथा नियम बनाने के लिए टीआरएआई (ट्राई) का। इसके अलावा, इस क्षेत्र में बहुत सी प्रतिस्पर्धा को अनुमति दी गई और इसलिए बाज़ार का विस्तरण हुआ तथा कॉल की लागत कम हो गई। हमने सेवा मानकों में सुधार देखा तथा अत्याधुनिक प्रौद्योगिकी का कार्यान्वन लागू किया गया था। जनसंख्या, आर्थिक सुधार तथा दुरसंचार उद्योग के विनियमन में ढ़ील के संयोजन के साथ, भारत विश्व का सबसे तेज़ी से बढ़ता हुआ बाज़ार बन गया।

इसी तरह हम निम्नलिखित निर्णय के साथ शिक्षा क्षेत्र को भी बदल सकते हैं:
1.    प्रत्येक राज्य के शिक्षा विभाग की भूमिका को सेवा प्रदाता से ट्राई जैसे नियामक में विभाजित करना।

2.    निजी कंपनियों, व्यक्तियों तथा भागीदारों को भी विद्यालय चलाने की अनुमति देना। अभी केवल ट्रस्टों को अनुमति है।

3.    सभी नगर निगम व सरकारी विद्यालयों को स्पष्ट उद्देश्यों तथा मापने योग्य परिणामों वाली एक सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनी में परिवर्तित करना।

4.    इस क्षेत्र में विदेशी पूंजी के निवेश को अनुमति देना तथा निजी एवं विदेशी प्रमुखों के लिए एक उच्च शिक्षा विभाग खोलना।

5.    सभी विद्यालयों के लिए गुणवत्ता माप में पारदिर्शता होना ताकि अभिभावक एक सूचित निर्णय ले सकें।

बढ़ती प्रतिस्पर्धा, भारी निवेश एवं पारदर्शिता ने पिछले कुछ वर्षों में भारत को दूर संचार बाज़ार में एक प्रमुख बना दिया है। मुझे यकीन है कि यदि यही सिद्धांत प्राथमिक व महाविद्यालयीन शिक्षा पर लागू कर दिए जाएं, तो समान परिणाम प्राप्त होंगे। हम एक अरब लोग हैं जिनका सपना अपने बच्चों को बेहतर शिक्षा प्रदान करना है। उनके इस सपने को पूरा करने की राह में सरकार क्यों बीच में आ रही है? 

विद्यालय के विरोध प्रदर्शन केवल वित्तीय कारणों से क्यों होते हैं?

हर वर्ष ये खबरें आती हैं कि अभिभावकों ने विरोध प्रदर्शन किया एवं एक विद्यालय का नाम समाचारपत्र में आता है। आमतौर पर बात यह होती है कि विद्यालय के शुल्क में वृद्धि हुई है तथा अभिभावकों ने एक समूह बनाया है व इसका विरोध करने का निर्णय लिया है। वर्ष दर वर्ष मैंने देखा है कि यही खबर दुहराती रहती है।

अभिभावकों को परिणामों व उनके बच्चे के भविष्य निर्माण पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए बजाए इसके कि वे कितने शुल्क का भुगतान कर रहे हैं। नमक व चीनी की तरह विद्यालयों को भार के पैमाने पर नहीं मापा जा सकता। कुछ बातें जिनपर अभिभावकों को ध्यान केंद्रित करना चाहिएः


1.    क्या उस कक्षा का पाठ्यक्रम पूरा हो गया है? यदि आप सर्जरी के लिए किसी चिकित्सक के पास जा रहे हैं व चिकित्सक अपने वादे के अनुसार ऑपरेशन तो कर देता है परंतु टांके नहीं लगाता, तो क्या रोगी बच सकेगा? पाठ्यक्रम पूरा ना करना इसी प्रकार की एक समस्या है। 90 प्रतिशत फीस का भुगतान मांगना तथा पाठ्क्रम का 90 प्रतिशत ही पढ़ाना, दीर्धकाल तक बच्चों की सहायता नहीं कर पाएगा।

2.    क्या शिक्षक बच्चों की कॉपी जांच रहा है? शिक्षक को बच्चों का कक्षा कार्य तथा गृह कार्य जांचना ही चाहिए। हालांकि कई शिक्षक नहीं करते हैं। माता पिता यह घर पर आसानी से देख सकते हैं। कभी कभी गलत उत्तरों को भी सही का निशान लगा दिया जाता है और इसलिए बच्चे को पता नहीं चलता कि उसने जो समझा है वह गलत है।

3.    क्या प्रश्न पत्र अत्यधिक आसान बनाया गया है? एक शिक्षक को पता होता है कि बच्चों को एक विशेष विषय समझ नहीं आया है। इसलिए अतिरिक्त समय लेकर उस विषय को समझाने की जगह वे परीक्षा में उस विषय से संबंधित प्रश्न ही नहीं पूछते या फिर उसमें से आसान प्रश्न पूछते हैं।

4.    क्या शिक्षक परीक्षा में अंक देने में उदारता दिखा रहे हैं? जब उनके बच्चों को अच्छे अंक प्राप्त होते हैं तो अभिभावक प्रसन्न हो जाते हैं। इसलिए कभी कभी शिक्षक बच्चे को उसकी योग्यता से अधिक अंक प्रदान कर देते हैं। कभी कभी यह प्रोत्साहन के लिए होता है जबकि अन्य समय में ऐसा नहीं होता।

5.    सुनिश्चित करना कि बच्चा होमवर्क करता है। फीस के मामले में अभिभावकों के विरोध प्रदर्शन को समाचार पत्र में स्थान प्राप्त होता है परंतु अभिभावक उनके बच्चों का गृहकार्य नहीं देखते यह सुर्खियां बटोरने लायक बात नहीं है। अधिकांश अभिभावक उनके बच्चों की पढ़ाई के बारे में तभी सोचते हैं जब परीक्षा समीप आ रही हो। अन्यथा बच्चों द्वारा कक्षा कार्य/गृह कार्य समय पर किए जाने के बारे में कोई परवाह नहीं करते हैं।

6.    ऐसे विषय जिनकी कोई परीक्षा नहीं होती, क्या उनमें बच्चा कुछ सीखता है- विषय जैसे कि शारीरिक शिक्षा, कला व शिल्प, संगीत जिनके लिए कोई परीक्षा व अंक नहीं होते हैं, उनमें बच्चा क्या सीख रहा है। क्या यह बच्चे के लिए केवल समय की बर्बादी है।

7.    यदि एक सप्ताह में कई बार बच्चे को फ्री पीरियड मिल रहा हो-तो विद्यालय उसका काम अच्छे से नहीं कर रहा है। क्या अभिभावकों को इस बात की चिंता है कि विद्यालय बच्चों के लिए शिक्षकों का प्रबंध करने में असमर्थ है?

8.    क्या बच्चों के मित्र अच्छे हैं? यदि बच्चा बुरी संगत में पड़ जाता है तो अध्ययन प्रभावित होता है। एक बच्चे की शिक्षा के लिए मित्र भी उतने ही ज़िम्मेदार हैं जितने की शिक्षक। बच्चों को सतर्क रहना चाहिए कि बच्चा किस तरह के मित्रों के साथ समय व्यतीत कर रहा है।


9.    क्या विद्यालय के शौचालय कार्य कर रहे हैं? विद्यालय की सुविधाएं भी उतनी ही अच्छी होनी चाहिए जितनी के उनके कर्मचारी। अभिभावकों को ऐसी छोटी बातों के बारे में भी सावधान रहना चाहिए क्योंकि बच्चों को विद्यालय के शौचालय से विभिन्न प्रकार के भय हो सकते हैं। कई बच्चे शौचालय जाने से बचते हैं व फलस्वरूप विभिन्न समस्याओं से ग्रस्त हो जाते हैं।

अभिभावकों को उनकी ऊर्जा अपने बच्चों के विकास पर लगानी चाहिए बजाए इसके कि एक विद्यालय कितना शुल्क वसूल रहा है। इस प्रकार बच्चे तथा संपूर्ण शैक्षिक क्षेत्र का भविष्य उज्जवल होगा।


विद्यालय का मूल्यांकन करने का मानदंड

पिछले पांच वर्षों में भारत के सभी शहरों में बहुत सारे निजी विद्यालय खुले हैं। वे घुड़सवारी, स्विमिंग पूल से लेकर सभी कक्षाओं में एसी जैसी सुविधाएं प्रदान करते हैं। यहां तक की शिक्षा के लिए स्मार्ट कक्षाओं एवं टेबलेट पीसी जैसी कुछ सुविधाएं जो भारत के लिए बिल्कुल असाधारण थीं, वे पिछले दशक में आम हो गई हैं। इन दिनों अधिकांश माता पिता का केवल एक ही बच्चा होता है और जब उन्हें एक विद्यालय में प्रवेश का निर्णय लेना होता ह तब वे काफी छोटे होते हैं। ऐसे अभिभावक आमतौर पर सतही बातों से प्रभावित होकर गलत विद्यालय में प्रवेश ले बैठते हैं। अभीभावकों को यह बात बाद में महसूस होती है और फिर वे उसी शहर के किसी अन्य विद्यालय में स्थानांतरण कर लेते हैं, कभी कभी शैक्षणिक वर्ष के दौरान ही। इससे विद्यार्थी अपने मित्र खो देते हैं तथा शिक्षा की प्रणाली बदल जाती है जिससे, शैक्षणिक पाठ्यक्रम में प्रगति के साथ इससे तालमेल बैठाना विद्यार्थियों के लिए बहुत कठिन हो जाता है।

यहां कुछ प्रश्न हैं जो आपको प्रवेश लेने से पूर्व पूछना चाहिएः

1.    क्या बोर्ड की परीक्षा में अव्वल स्थान प्राप्त करने वालों में से इस विद्यालय का कोई विद्यार्थी है? यदि विद्यालय में राज्य बोर्ड के अलावा कोई अन्य बोर्ड है तो यह प्रश्न भी पूछा जाना चाहिए कि शहर में से कितने विद्यार्थियों ने उस परीक्षा में भाग लिया- ताकि आप जान सकें कि क्या उन्होनें वास्तव में किसी प्रतिस्पर्धा का सामना किया।

2.    क्या बोर्ड की परीक्षा में कुछ विद्यार्थी अनुत्तीर्ण हुए है? इस तरह के प्रश्न की जांच इंटरनेट एवं मीडिया पर उपलब्ध जानकारी के साथ की जानी चाहिए। ऐसे कुछ विद्यालय हैं जो 100 प्रतिशत परिणाम का दावा करते हैं परंतु वास्तव में ऐसा है नहीं।

3.    बोर्ड की परीक्षा में विद्यालय का औसत परिणाम क्या है? परिणाम 100 प्रतिशत हो सकते हैं तथा बोर्ड में कुछ अव्वल स्थान प्राप्त करने वाले विद्यार्थी भी हो सकते हैं- परंतु औसत परिणाम यह बता देगा कि आपका बच्चा उस विद्यालय में संभवतः कितने अंक प्राप्त करेगा। इसलिए यदि अ विद्यालय का पिछले पाँच वर्षों का औसत परिणाम 65 प्रतिशत है तथा ब विद्यालय का 66 प्रतिशत है, तो विद्यालय ब विद्यालय अ से कहीं बेहतर है क्योंकि यह बताता है कि बहुत से विद्यार्थियों ने बहुत अधिक अंक प्राप्त किए होंगे।

4.    परिणाम का मानक अपसरण क्या है? कई लोग बोर्ड के स्थानों तथा 100 प्रतिशत उत्तीर्ण अनुपात से प्रभावित हो जाते हैं परंतु दिलचस्प आंकडे़ यह होंगे कि कितने विद्यार्थी औसत से दूर हैं। यह बैच के परिणामों की स्थिरता पर एक अच्छी दृष्टि प्रदान करेगा। तो मान लीजिए कि 40 बच्चों की कक्षा में अव्वल रहने वाले 5 विद्यार्थी हैं तथा औसत परिणाम भी अच्छा है। हालांकि यदि मानक अपसरण बहुत अधिक है, -तो इसका अर्थ है कि बहुत से विद्यार्थी ऐसे हैं जो औसत परणाम से दूर हैं। इससे कक्षा के प्रदर्शन में विसंगति का पता चलता है तथा संकेत मिलता है कि विद्यार्थी विद्यालय में अध्ययन करने की बजाए ट्यूशन लेते हैं।,

5.    विद्यार्थी अवधारणः एक अच्छे विद्यालय की एक उच्च विद्यार्थी अवधारण दर होगी - अगर विद्यार्थियों के बहुमत में एक निरंतर परिर्वतन होगा तो एक संकेत होगा कि विद्यालय के प्रति एक प्रमुख अंसतोष है।

6.    कर्मचारी अवधारणः एक ही विद्यालय में शिक्षकों की निरंतरता शिक्षा की गुणवत्ता के लिए बहुत महत्त्वपूर्ण है। एक विद्यालय जिसके शिक्षक कम अनुभवी हैं, एक निश्चित समस्या है। हालांकि शिक्षकों का अक्सर बदलते रहना भी एक बड़ी समस्या है। यह एक बड़ी समस्या का एक निश्चित संकेत है।

7.    नियमित विज्ञापनः वे विद्यालय जिन्हें पुराना होने के बावजूद अक्सर विज्ञापन की आवश्यकता होती है, तो यह एक संकेत है कि विद्यालय में कुछ गुणवत्ता समस्याएं हैं। यदि विद्यालय में पढ़ने वाले बच्चों के माता पिता प्रचार नहीं कर रहे हैं तो आमतौर पर कुछ अंतर्निहित समस्या है।

आपके बच्चे के लिए सही विद्यालय का चयन करने में आपको सफलता प्राप्त हो- यह आपके बच्चे के भविष्य के लिए एक महत्त्वपूर्ण निर्णय है। 

Friday 4 November 2016

विद्याथियों की फिटनेस व अकादमिक प्रदर्शन में गणवेशों की भूमिका

अमेरिकी हार्ट एसोसिएशन ने निर्णय लिया है कि एक व्यक्ति को स्वस्थ रहने के लिए एक दिन में 10,000 कदम चलना आदर्श है। वर्तमान में स्वास्थ्य न केवल वयस्कों के लिए बल्कि बच्चों के लिए भी चिंता का विषय है। बचपन का मोटापा हमारी भविष्य की पीढ़ी के लिए सबसे बड़े खतरों में से एक है। एक बार बच्चे के मोटा अथवा अधिक वज़न के होने के बाद वह वयस्क बनने पर भी वैसा ही रहता है। यहां तक की यह एक आजीवन की समस्या हो जाती है। परिवारों के एक या दो ही बच्चे होने के कारण उनके भोजन व पार्टी के लिये बजट बढ़ गया है। बच्चों को अच्छी तरह से खिलाया जाता है और अधिकांश बार अधिक खिलाया जाता है। परंतु यह समस्या का एक ही भाग है। अन्य भाग विद्यालय के दौरान उनकी गतिविधियों का स्तर।

बच्चे विद्यालय में प्रतिदिन 6 घंटे व्यतीत करते हैं। अधिकांश समय वे बैठे रहते हैं। कई विद्यालयों ने विद्यालय के दिनों में गतिविधि की योजना बनाई है। रीसेस में उन्हें खेलने व कुछ शारीरिक गतिविधि करने का अवसर प्राप्त होता है। घर जाने के बाद कुछ बच्चे टीवी देखते हैं व कुछ पढ़ाई करते हैं। एक आयु समुह के बच्चे ना होने के कारण या सुरक्षा चिंताओं के कारण सभी बच्चे घर जाने के बाद नहीं खेलते हैं।

जब वे किशोरावस्था में पहुंचते हैं जहां उनके शरीर अधिक ऊर्जावान होते हैं वहीं उनकी पढ़ाई का भार भी बढ़ जाता है इसलिए उन्हें शारीरिक गतिविधि करने की बजाये बैठ कर पढ़ाई करने में अधिक समय व्यतीत करना होता है।

तो अगली पीढ़ी के मन में फिटनेस को अंतर्निहित करने का एक ही तरीका है। हमें बच्चों को उनके 9वीं कक्षा में जाने से पहले ही सक्रिय करना होगा। सबसे आसान तरीकों में से एक है विद्यालय की समय सारिणी में सप्ताह के हर दिन एक शारीरिक गतिविधि का पीरियड़ होना। एक बार मैंने एक विद्यालय की समयसारिणी देखी जहां सप्ताह का एक दिन एक कक्षा को विभिन्न गतिविधियों के लिए सर्मपित था। उदाहरण के लिए मंगलवार को दूसरी कक्षा गतिविधि के लिए जाती है वहीं बुधवार को तीसरी कक्षा जाती है। यह देखना दिलचस्प था कि बच्चे जो आलसी थे वे उन दिनों में अनुपस्थित हो जाते थे।

मैंने प्रधानाध्यापिका से पूछा कि पीरियड़ों के वितरण का यह विशिष्ट तरीका क्यों है और उन्होंने कहा कि इन दिनों में लड़कियां उनकी फ्रॉक के भीतर पजामा पहनती थी ताकि वे सभी गतिविधियों में भाग ले सकें। तभी मेरे मन में एक प्रश्न उठा कि लड़के तो रीसेस में खेल लेते होंगे परंतु उन दिनों में लड़कियां क्या करती होंगी-पजामा नहीं- तो शारीरिक गतिविधि नहीं!

इससे एक महत्त्वपूर्ण अवलोकन प्राप्त हुआ। लड़कियां रीसेस में आमतौर पर खाना खाती थीं व गपशप करती थीं जबकि लड़के शारीरिक गतिविधि करते थे। सभी विद्यार्थियों को व्यायाम की दैनिक खुराक नहीं मिल पा रही थी बल्कि सप्ताह के एक विषेश दिन वे सारे व्यायाम कर रहे थे। अंततः लड़कियों का वज़न आदर्श स्थिति से अधिक बढ़ रहा था। दूसरी तरफ लड़के भी लापरवाह थे क्योंकि उनकी गतिविधि के पीरियड कम थे।

अहमदाबाद के दो विद्यालय-उद्गम व ज़ेबर ने लड़कियों को ट्राउज़र (पतलून) दी हैं व उनकी समय सारिणी में प्रतिदिन एक गतिविधि का पीरियड दिया है। ऐसा करने के वर्षों बाद बच्चों के स्वास्थ्य में एक उल्लेखनीय सुधार आया है व वे विद्यालय आने के लिए प्रोत्साहित हुए हैं- इसलिये अनुपस्थितियों का स्तर नीचे चला गया है। आमतौर पर विद्यार्थियों की प्रतिरोधक क्षमता बढ़ी है व इसलिये बीमारी के दिन भी कम हुए हैं। कुल मिला कर विद्यालय के शैक्षणिक मानक ने एक निरंतर सुधार दर्शाया है।


बच्चे के विकास में निन्दा से कहीं अधिक महत्त्वपूर्ण प्रशंसा है (भाग 1)

कई वर्षों पहले मेरे पास शिक्षकों के एक समूह के लिए एक प्रश्न थाः आप निम्न स्थितियां में क्या करेंगेः

  1. एक बच्चा कक्षा में दुर्व्यवहार करता है
  2. होमवर्क नहीं करता
  3. समय का पाबंद नहीं है
  4. उपयुक्त गणवेश नहीं पहनता है
  5. अच्छी तरह से खाना नहीं खाता है

अधिकांश शिक्षकों ने उत्तर दिया कि हमः

बच्चे को कक्षा में दंड देंगे
  1. डायरी में माता पिता के लिए नोट लिखेंगे
  2. बच्चे को प्राचार्य के पास भेजेंगे
  3. यदि मामला गंभीर है तो माता पिता से मिलेंगे

मैंने अन्य प्रश्न पूछा कि यदि बच्चा इसके बिल्कुल विपरीत है-जैसे कि बहुत अच्छा व्यवहार है, हर बार होमवर्क करता है, समय का बहुत पाबंद है या उपयुक्त गणवेश पहनता है, लंच बॉक्स में से सबकुछ खा लेता है, सबकुछ अच्छे से करता है जो उससे किया जाना अपेक्षित है, तो आप क्या करेंगे? अधिकांश शिक्षकों ने कहा कि वे बच्चे की प्रशंसा कक्षा के सामने करेंगे। अच्छा प्रदर्शन करने वाले विद्यार्थियों का कम ही रिकार्ड था।

इसने मुझे सोचने पर मजबूर कर दिया कि क्यों एक गलती दोहराने वाले के लिए दंड गंभीर है परंतु एक सुसंगत प्रदर्शन करने वाले के लिए कोई ‘‘अतिरिक्त” सराहना नहीं है। इसके अलावा, प्रशंसा किए जाने का कोई रिकार्ड नहीं था हालांकि निंदा का एक स्थायी रिकार्ड डायरी में था।

एक बच्चे के विकास में ऊपर उल्लेखित अधिकांश वस्तुएं बहुत महत्त्वपूर्ण थीं। तद्यपि किसी भी पाठ्यक्रम में उसे शामिल नहीं किया गया था और किसी भी टेस्ट में उसके लिए अंक नहीं दिए गए थे। बल्कि इन सभी छोटे प्रयासों से बच्चा एक परीक्षा में बेहतर प्रदर्शन करेगा, परंतु प्रत्येक चरण पर बच्चे के लिए कोई पुरस्कार नहीं था।

एक और असंबंधित अवलोकन यह था कि विद्यार्थियों को प्रतिस्पर्धा करना बहुत पसंद था। अंकन प्रणाली के चले जाने के साथ व विद्यार्थियों को ग्रेड दिये जाने के कारण वे शैक्षिक उपलब्धियों के माध्यम से एक दूसरे के साथ तुलना नहीं कर रहे थे। इसलिए अब वह प्रतिस्पर्धा और कहीं जा रही थी। ये यह था कि क्या तुमने छुटिटयों में किसी विदेशी देश की यात्रा की? क्या तुम्हारे पिता के पास एक बड़ी कार है? क्या तुम्हारे पास नवीनतम आईपैड है या क्या तुमने नवीनतम खेल में उच्च स्कोर प्राप्त किया?

कई बार ये प्रतिस्पर्धाएं बिल्कुल विपरित दिशा में जाती हैं- इस वर्ष तुम्हारे माता पिता को कितनी बार बुलाया गया? बच्चे स्वयं को बेहतर करने के स्थान पर दंड प्राप्त करने में गर्व महसूस करने लगते हैं व परिणामस्वरूप कट्टर अपराधी बन जाते हैं।

बाल मनोवैज्ञानिक विशेषज्ञों का मानना है कि बच्चे त्वरित संतुष्टि (इनाम) चाहते हैं। तो यदि आप बच्चों को ये कहें कि यदि आपने आज अच्छा बर्ताव किया तो मैं शैक्षणिक वर्ष के अंत में तुम्हें अच्छे अंक दूंगा, यह उन्हें प्रोत्साहित नहीं करता। यहां तक कि ‘‘स्टेनफोर्ड मार्शमेलो प्रयोग” ने पता किया कि यदि बच्चों को अभी एक छोटे पुरस्कार व 15 मिनट बाद एक बड़े पुरस्कार के बीच में चयन करने का विकल्प दिया जाए तो वे एक तत्काल छोटा इनाम चुनेंगे। तो हम बच्चों को एक अच्छा व्यवहार करने वाला व बुद्धिमान नागरिक बनाने के लिए एक सकारात्मक सुदृढीकरण की एक प्रणाली बनाने के लिये ऊपर उल्लेखित जानकारियों का उपयोग किस प्रकार करेंगे?

अगले सप्ताह हम अहमदाबाद के दो विद्यालयों में कार्यान्वित की गई एक परियोजना के बारे में बात करेंगे।

बच्चे के विकास में निन्दा से कहीं अधिक महत्त्वपूर्ण प्रशंसा है (भाग 2)

पिछले लेख में हमने चर्चा की कि किस प्रकार शिक्षक नकारात्मक टिप्पणी रिकार्ड पर डाल देते हैं परंतु सकारात्मक टिप्पणी मौखिक रूप से दी जाती है। साथ ही, बच्चे तत्काल पुरस्कार चाहते हैं व परिणाम प्राप्त करने के लिए वर्ष के अंत की मार्कशीट तक का इंतज़ार नहीं कर सकते।

तो अहमदाबाद के दो विद्यालयों ने एक दिलचस्प प्रयोग किया-अच्छे व्यवहार के लिए स्टीकर्स देने का। वे छोटी वस्तुएं जिनके लिए अंक नहीं दिये जा सकते परंतु बच्चे के जीवन में महत्त्वपूर्ण हैं, उनके लिये स्टीकर्स दिए जाते हैं। उदाहरण के लिए एक बच्चे को पुस्तकें पढ़ने का शौक है। पढ़ने के प्रति इस प्यार को विद्यालय द्वारा आयोजित टेस्ट में या बोर्ड परिक्षाओं में प्रशंसित नहीं किया जाएगा। परंतु हम सभी जानते हैं कि पढ़े बगैर बच्चे का सामान्य ज्ञान बहुत सीमित होता है। एक लाइब्रेरी शिक्षक उस बच्चे को स्टीकर देता है जो पढ़ने का शौकीन है।

अब इस प्रकार के स्टीकर को चिपकाया कहां जाता है? यदि हम डायरी में चिपकाते हैं तो वह प्रति वर्ष हट जाएगा। साथ ही स्टीकर के साथ नकारात्मक टिप्पणियां भी होंगी जो उसे याद दिलाएंगी कि वह उतना अच्छा/अच्छी नहीं है। इसलिये स्टीकर को एक छोटी पुस्तिका पर चिपकाया जाता है जो खास तौर पर इसी उद्देश्य के लिए है-इसे पासपोर्ट कहा जाता है। प्रत्येक स्टीकर को प्रदर्शन का वीज़ा कहा जाता है व पुस्तिका को उत्कृष्टता के लिए पासपोर्ट कहा जाता है।

इस प्रणाली को सकारात्मक वयवहार के लिए प्रोत्साहित करने में कई वर्षों के अनुसंधान के बाद विकसित किया गया है। एक बार इस प्रकार का वीज़ा दिये जाने के बाद उसे वापस नहीं लिया जाता है। पासपोर्ट में कोई भी नकारात्मक टिप्पणियां नहीं होनी चाहिये। प्रत्येक शिक्षक केवल 3-4 वीज़ा ही दे सकता है व विद्यार्थी को एक प्रकार का वीज़ा एक ही बार दिया जा सकता है।

वह बच्चा जिसे एक कक्षा में सबसे अधिक बीज़ा प्राप्त होंगे उसे वर्ष के अंत में सम्मान प्राप्त होगा। कक्षा में अधिकतम वीज़ा प्राप्त करने की प्रतिस्पर्धा रहेगी। हालांकि एक बच्चे को एक प्रकार का वीज़ा एक बार ही मिल सकता है, बच्चे को अन्य पहलुओं पर भी सुधार करना होता है। इससे बच्चे का सर्वांगीण विकास होता है।

वीज़ा के प्रकार शिक्षकों द्वारा, बच्चों में उनके द्वारा देखी गई परेशानियों के आधार पर निर्धारित किए जाते हैं। उदाहरण के लिए कम्प्यूटर कक्षा में बहुत अधिक दुर्व्यवहार था। इसलिये शिक्षक ने घोषणा की कि उसे निपुणता का वीज़ा दिया जाएगा जो प्रैक्टिकल को सबसे पहले समाप्त करेगा। यह बच्चों को मस्ती करने के स्थान पर सौंपा गया कार्य करने की दौड़ के लिए प्रोत्साहित करेगा।

उद्गम विद्यालय- बच्चों को प्रोत्साहित करने के लिए इस प्रणाली का उपयोग पिछले 4 वर्षों से कर रहा है व उसने अच्छे परिणाम प्राप्त किये हैं। पालकों ने प्रशंसा की है व बच्चों ने भी। यह शिक्षकों के लिए कार्य को थोड़ा बढ़ा देता है परंतु कक्षा के नियंत्रण व बच्चों के अकादमिक ने सकारात्मक सुधार दिखाया है। हाल ही में इसी प्रणाली को ज़ेबर विद्यालय में भी लागू किया गया है। 

बच्चों को उत्पादक रूप से संलग्न करने का प्रभावशाली तरीका

बच्चों के पास अपने खाली समय में करने के लिए सीमित वस्तुएं हैं। वयस्क पर्यवेक्षण के बगैर या तो वे दोस्तों के साथ खेलते हैं, मोबाईल उपकरणों पर गेम खेलते हैं या टी.वी. देखते हैं। मस्तिष्क का उपयोग सीमित है और इसलिये मस्तिष्क का विकास प्रभावित होता है। इसके अलावा, वे कॉलोनियां जहां एक ही उम्र के ज़्यादा बच्चे नहीं हैं-एकमात्र विकल्प जो परिवार उनके बच्चों को दे सकते हैं वह है-स्क्रीन के सामने समय बिताना।

बच्चों को आकर्षित करने का व उन्हें मज़ेदार तरीके से मानसिक विकास प्रदान करने का एक अभिनव तरीका है। तो एक बक्से में वे गतिविधियां हैं जो बच्चे उनकी उम्र के अनुसार कर सकते हैं। अधिकांश गतिविधियां बच्चे वयस्क पर्यवेक्षण के बगैर कर सकते हैं जबकि कुछ गतिविधियों में बच्चों को कुछ सहायता की आवश्यकता हो सकती है।

उदाहरण के लिए विषय वरीष्ठ केजी के विद्यार्थियों को तीन वर्षां के शब्द सिखाने से संबंधित है। तो दो वर्ष वाले छोटे बक्सों के साथ एक बोर्ड खेल है और उनके टूकड़ों को आगे ले जाने के लिए बच्चों को दो वर्णों से बनने वाले अधिक से अधिक शब्दों की संख्या का अनुमान लगाना है। जो बच्चा सबसे अधिक शब्दों का अनुमान लगाएगा, वह जीतेगा। यह बच्चों को खेल के साथ सीखने का एक सरल तरीका है।

एक प्लेग्रुप वाले बच्चे के लिए पाइप साफ करने वाले ब्रश में विभिन्न पैटर्न में मोती डालना विभिन्न सतहों को छूने का व कुछ रचनात्मक करने का एक शानदार अनुभव देता है। वास्तव में खेलते हुए उनके मस्तिष्क का विकास हो जाएगा।

यह कई सारे उम्र के अनुसार उपयुक्त खेलों का एक उदाहरण है जिन्हें बच्चों के लिये सोचा जा सकता है। अहमदाबाद के दो विद्यालय उद्गम व ज़ेबर ने बच्चों को दिवाली के पहले ऐसे 4 खेल देने की योजना बनाई है ताकि बच्चे उसे छुट्टियों में खेल सकें जब माता पिता भी कार्यमुक्त होते हैं।

अब शिक्षा कक्षा या पाठ्यपुस्तक ही सीमित नहीं है। छोटे बच्चों में, जितना अधिक वह अनुभव करता है उतना अधिक उसका मस्तिष्क विकसित होता है। बच्चों को वस्तुओं को छूकर महसूस करने देना उन्हें समझाने से अधिक महत्त्वपूर्ण है। तो बच्चों को पानी की तीन अवस्थाएं समझाना-भाप, तरल व बर्फ, उन्हें स्मार्ट बोर्ड पर विडियो दिखा कर समझाया जा सकता है। परंतु उन्हें वास्तव में दिखाने से वे तापमान को महसूस कर सकते हैं व भाप को संघनित होते हुए व बर्फ को पिघलते हुए देख सकते हैं। एक अवधारणा का वास्तव में अनुप्रयोग आसानी से समझने व याद करने में सहायता करता है और खासतौर पर तब जब बच्चों को सीखने में मज़ा आ रहा हो।

छोटे बच्चों को खेल खेलने से आसानी से आकर्षित किया जा सकता है और उन्हें नई वस्तुएं जानने की बहुत जिज्ञासा होती है- चाहे उन्हें उसके लिए कोई अंक नहीं प्राप्त होने वाले हैं। कोई भी नया अनुभव करना किसी भी अन्य पुरस्कार से अधिक फायदेमंद है। उन प्रारंभिक वर्षों के दौरान मस्तिष्क का विकास अधिकतम होता है। और चूंकि वस्तुओं को छूने, महसूस करने, व सूंघने में अधिक इंद्रियां शामिल होती हैं- एकाग्रता अधिक होती है।

ट्रंक वर्क्स, फ्लिंटोबॉक्स व मैजिक क्रेट नाम की कंपनियां हैं जो विभिन्न आयू समूह के बच्चों को इस तरह के बक्से देती हैं। ऐसे अभिनव समाधानों के साथ बच्चों के लिए शिक्षा आसान व दिलचस्प हो रही है।


गुजरात बोर्ड का एनसीईआरटी की पाठ्यपुस्तक की नकल करना एक भूल है

गुज़रात राज्य शिक्षा बोर्ड ने तेज़ी से अपने पाठ्यक्रम में संशोधन करने का फैसला किया है। मामलों को सरल बनाने के लिए 9वीं से 12वीं कक्षा के लिए एनसीईआरटी पाठ्यपुस्तकों की नकल की जाएगी व 2017 में उपयोग के लिये लागू की जाएगी। कई वर्षों से गुजरात सरकार दावा कर रही थी के गुजरात का पाठ्यक्रम आर्दश था व बच्चे प्रवेश परीक्षा का समाना अच्छी तरह से करने में सक्षम होंगे परंतु अचानक सरकार ने उसी पाठ्य्क्रम का पुनर्निमाण करने का फैसला लिया है।

इस निर्णय के साथ कुछ समस्याएं हैं। जहां हमें एनईईटी के माध्यम से मेडिकल प्रवेश आयोजित करने के निर्णय के लिए खुश होना चाहिये, गुजरात सरकार ने पाठ्यपुस्तकें बदलने का निर्णय लिया है। प्रश्न उठता है कि सरकार ने राष्ट्रीय पाठ्यक्रम ढ़ांचे को 11 वर्ष तक क्यों नहीं अपनाया?

एक बच्चे का प्रशिक्षण धीरे धीरे होता है, वह 15 वर्ष की अवधि का समय विद्यालय में गुज़ारता है। 11 वर्षों तक पढ़ाया गया पाठ्यक्रम गुजरात बोर्ड के पाठ्यक्रम पर आधारित था और अचानक से बच्चे को सीबीएसई पाठ्यक्रम को अपनाना होगा। इसे पहले प्राथमिक कक्षा से बदलना होगा फिर माध्यमिक कक्षाओं से ताकि वही बैच आधारभूत वर्षों से ही भिन्न पाठ्यक्रम से परिचित हो जाएं।

यह प्रश्न भी उठता है कि क्या हर बच्चा उस पाठ्यक्रम को अपनाने में सक्षम है जिसे चिकित्सकीय व ईंजीनियरिंग पाठ्यक्रम के लिए प्रवेश परीक्षा के उद्देश्य से बनाया गया है। हम सुर्खियों में देखते हैं कि शीर्ष महाविद्यालयों के लिए कट ऑफ अंक बहुत उच्च अंको पर समाप्त होते हैं। यह कहानी पढ़ने में बहुत दिलचस्प है कि किस प्रकार एक उम्मीदवार को उसकी पसंद के महाविद्यालय में प्रवेश नहीं मिल पा रहा जिसने 96 प्रतिशत अंक प्राप्त किये हैं। परंतु ज़मीनी वास्तविकता पर स्थिति बहुत अलग है। जहां कट ऑफ से संबंधित बातें सच हैं वहीं मुश्किल से उत्तीर्ण होने वाले विद्यार्थियों की संख्या उन विद्यार्थियों की संख्या से कहीं ज़्यादा है जिन्हें शीर्ष महाविद्यालयों में कुछ अंको की वजह से प्रवेश नहीं मिला।

वे विद्यार्थी जो राज्य बोर्ड में औसत से कम प्रदर्शन करते हैं, एनसीईआरटी पाठ्यक्रम अपनाए जाने के कारण अनुत्तीर्ण होने के लिए विवश हैं। उनके लिये राज्य बोर्ड की किताबों से ही उत्तीर्ण होना कठिन है, जिन्हें आसान समझा जाता है। इसके अलावा ये वे विद्यार्थी हैं जहां अभिभावक अतिरिक्त ट्यूशन की कीमत वहन करने में समर्थ नहीं है और इसलिये उन्हें विद्यालयीन शिक्षकों पर निर्भर रहना होता है। ये शिक्षक वर्षों से राज्य बोर्ड की पुस्तकें पढ़ा रहे हैं व अचानक से एनसीईआरटी में परिवर्तन से उन्हें झटका लगेगा।

बच्चे उनके जीवन का केवल 10 प्रतिशत भाग कक्षा में व्यतीत करते हैं व 90 प्रतिशत सीखना विभिन्न वस्तुओं द्वारा होता है जिसमें अभिभावकों से सहायता शामिल है। अब यदि अभिभावक स्वयं ही कम ग्रेड में पढ़ने वाले उसके बच्चे की सहायता नहीं कर सकता तो बच्चा किस प्रकार अध्ययन का सामना करेगा?

समाधान यह है कि हमें बच्चे की आवश्यकता व अभिभावकों की क्षमता से मेल खाता हुआ एक पाठ्यक्रम चाहिये। एक अशिक्षित अभिभावक की आवश्यकता शायद उसके बच्चे को किफायती शिक्षा दिलाने की हो सकती है वहीं उच्च शिक्षित अभिभावक उसके बच्चे को वैज्ञानिक बनाना चाहता हो। हमें उन बच्चों के लिए अलग पाठ्यक्रम की आवश्यकता है जो व्यावसायिक पशिक्षण प्राप्त करना चाहते हैं, एक सामान्य स्नातक स्तर की पढ़ाई करना चाहते हैं व उन बच्चों के लिए जो उन्नत अध्ययन करना चाहते हैं। यदि हम इन पहलुओं को अलग नहीं करेंगे तो मुझे यकीन है कि इन पाठ्यपुस्तकों को बदले जाने के बाद आने वाले पांच वर्षों में विद्यालय छोड़कर जाने वालों का अनुपात 56 प्रतिशत से बढ़कर 80 प्रतिशत हो जाएगा। हमें शिक्षकों की गुणवत्ता की ज़मीनी वास्तविकता भी देखनी होगी कि क्या वे नए पाठ्यक्रमों को पढ़ाने में सक्षम हो पाएंगे?


विद्यालयों का भविष्य- आर्थिक व्यवहार्यता संदेह में

विद्यालयों को अर्थव्यवस्था में सुधार के लिए एक महत्त्वपूर्ण उपाय के रूप में इस्तेमाल किया गया है। उन्हें बच्चों को विकास करना व ऐसी नौकरियां लेना सिखाना चाहिये जिसमें शिक्षा की आवश्यकता हो। ये नौकरियां अच्छा वेतन देने वाली होती हैं और इस तरह वे देश की अर्थव्यवस्था बढ़ाती हैं। हालांकि सरकार स्वयं विद्यालयों की अर्थव्यवस्था के बारे में कभी नहीं सोचती है। उनके वित्तीय दृष्टिकोण से विद्यालयों के आने वाले 5 वर्षों के लिए मेरा पुर्वानुमान हैः

1. हर शिक्षक का वेतन बढ़ेगाः 7वां वेतन आयोग शिक्षकों के वेतन को 20 प्रतिशत से 35 प्रतिशत तक बढ़ा देता है। फिर लगभग 13 प्रतिशत से वार्षिक तौर पर वेतन बढ़ेगा जब तक अन्य वेतन आयोग नहीं बन जाता। इसका अर्थ है कि उसी शिक्षक को उतने ही समय में वही कार्य करने के लिए अधिक भुगतान किया जाएगा। शिक्षक की उत्पादकता या गुणवत्ता में कोई सुधार नहीं है-केवल वेतन बढ़ेगा। शिक्षक के जीवनयापन की लागत में वृद्धि हुई है इसलिए वेतन की यह वृद्धि उचित हो सकती है परंतु हम यहां पर उस विषय की चर्चा नहीं कर रहे हैं।

2. कुल कर्मचारियों की संख्या में वृद्धि होगीः पिछले कुछ वर्षों में सीबीएसई शिक्षण व गैर शिक्षण कर्मचारियों का रोज़गार अनिवार्य कर रहा है। उदाहरण के लिए, परामर्शदाता, विशेष शिक्षक, आत्मरक्षा शिक्षक की भर्ती व इस तरह के कई पदों की रचना सीबीएसई द्वारा की गई है। यह विद्यालय के संपूर्ण वेतन व्ययों को बढ़ा देता है।

3. 25 प्रतिशत सीटें आरटीई के बच्चों के लिए आरक्षित हैं। निर्धन बच्चों को अनिवार्य रूप से निःशुल्क शिक्षा दी जानी है। सरकार बच्चे के लिए केवल नाममात्र की लागत की प्रतिपूर्ति करेगी। यह बोझ स्वाभाविक रूप से विद्यालय पर पड़ेगा क्योंकि उनकी कुल शुल्क वसूली 25 प्रतिशत कम हो जाएगी। अभी बच्चों की संख्या 25 प्रतिशत क्षमता तक नहीं पहुंची है हालांकि यह स्पष्ट संकेत है कि आने वाले 5 वर्षों में ऐसा होगा।

4. शिक्षकों को निरंतर प्रशिक्षण की आवश्यकता हैः शिक्षकों को निरंतर प्रशिक्षण की आवश्यकता है क्योंकि दुनियाभर में शिक्षा का क्षेत्र बड़ी तेज़ी से बड़ रहा है। जल्दी व बेहतर पढ़ाने के लिये नई तकनीकें हैं जिनका पता लगाने की व शिक्षकों को सिखाने की आवश्यकता है। इसमें बहुत से पैसों की आवश्यकता है। यह अनुमानित है कि विद्यालयों को शिक्षकों के प्रशिक्षण के लिए उनके वेतन के 10 प्रतिशत का बजट होने की आवश्यकता है।

5. अवसंरचना की गुणवत्ता में वृद्धि होना चाहियेः विद्यालय की इमारत व प्रौद्योगिकी को लगातार सुधारने की व बनाए रखने की आवश्यकता है। 5 वर्ष पहले विद्यालय में कोई सीसीटीवी केमरे नहीं हुआ करते थे -परंतु आज के विद्यालयों के लिए यह अनिवार्य है। यह केवल एक उदाहरण है कि विद्यालयों को किसमें निवेश करने की आवश्यकता है।

6. विद्यालयों से अभिभावकों की अपेक्षा बढ़ती ही रहती हैः अभिभावक विद्यालय से आशा रख रहे हैं कि वे सीबीएसई द्वारा अनिवार्य पाठ्यक्रम के अलावा भी कई वस्तुएं सिखाएं। विद्यालयों को शिष्टाचार, अंग्रेज़ी में बात करना व कई अन्य वस्तुएं सिखानी चाहिये। हर वस्तु में पैसे नहीं लगते पर बहुत सी वस्तुओं में लगते हैं।

7. शुल्क में वृद्धि को 10 प्रतिशत पर नियंत्रित किया जाता हैः उन्हीं अभिभावकों से विद्यालय द्वारा लिये जाने वाले शुल्क को 10 प्रतिशत तक सीमित कर दिया गया है। तो जहां विद्यालय के खर्च वर्ष दर वर्ष 20 प्रतिशत से अधिक से बढ़ रहे हैं उनकी आय केवल 10 प्रतिशत से बढ़ेगी- इसका परिणाम क्या होगा?

जब तक सरकार स्वयं द्वारा वित्तपोषित विद्यालयों के प्रति उसका रवैया नहीं बदलती मुझे यकीन है कि अगले पांच वर्षों में निजी विद्यालय कष्ट भुगतने वाले हैं व निजी विद्यालयों की गुणवत्ता सरकारी विद्यालयों से भिन्न नहीं होगी। यह भारतीय अर्थव्यवस्था पर दीर्घकालीन प्रभाव डालेगा व भारत को 15 वर्ष पीछे धकेल देगा।

महाविद्यालयों में शुल्क समीति ने भारतीयों को विदेशी शिक्षा के क्षेत्र में 13 बिलियन खर्च करने के लिए प्रेरित किया है।

एसोचैम, सामाजिक विज्ञान के टाटा संस्थानों व आईआईएम-बी द्वारा किए गए कई अध्ययन इस निष्कर्श पर पहुंचे हैं कि विदेश में अध्ययन करने जाने वाले भारतीयों में जबरदस्त उछाल है। सांख्यिकी का यूनेस्को संस्थान और अंतर्राष्ट्रीय शिक्षा का संस्थान भी संख्या देते हैं जो साबित करते हैं कि 10 वर्ष की अवधि में विदेश में पढ़ने वाले विद्यार्थियों की संख्या में लगभग 250 प्रतिशत उछाल है। विदेशी मुद्रा का आधिकारिक बहिर्वाह 6 बिलियन डॉलर से 17 बिलियन डॉलर के मध्य कहीं होने का अनुमान लगाया गया है। दुर्भाग्यपूर्ण बात यह है कि विदेश में पढ़ने वाले अधिकांश विद्यार्थी वहीं बस जाते हैं व विदेशी राष्ट्र को कर देना प्रारंभ कर देते हैं। जहां वे भारत में रियायती प्रारंभिक शिक्षा प्राप्त करते हैं-जब सरकार को करों के माध्यम से सब्सिडी चुकाने की बारी उनकी होती है, वे उसे और कहीं चुकाते हैं। विदेशी शिक्षा ना केवल भारत का वर्तमान विदेशी मुद्रा भंडार को लूट लेती है बल्कि उसके भविष्य की आय को भी। लगातार बड़े पैमाने पर पलायन के अप्रत्यक्ष प्रभावों का व उस राशि का जो अभिभावक विदेश में पढ़ रहे उनके बच्चों से मिलने जाने के लिए खर्च करते हैं, हमें अंदाजा ही नहीं है।

विद्यार्थियों के विदेश जाने का मुख्य कारण भारत में गुणवत्ता शिक्षा की कमी है। आईआईटी में सीमित सीटें होती हैं व वे अत्यधिक प्रतिस्पर्धी होती हैं। अन्य महाविद्यालय भी हैं हालांकि उनमें भी सीटें सीमित होती हैं व पाठ्यक्रम एवं शिक्षा शास्त्र पुराने होते हैं। इस समस्या की जड़ मुक्त बाज़ार को शिक्षा के क्षेत्र में उसकी भूमिका अदा करने की अनुमति नहीं दी जाना है। महाविद्यालय शुल्क समिति के द्वारा विनयिमित किए जाते हैं। तो वे इतना शुल्क नहीं ले सकते जितना लोग भुगतान करने को तैयार हैं। शुल्क समिति केवल कीमत की वसूली की अनुमति देती है। तो महाविद्यालय उनके स्वयं के अधिशेष से नई क्षमता नहीं बना सकते। भारत में बढ़ते महाविद्यालय या तो दान द्वारा अथवा सरकार के वित्तपोषण द्वारा वित्तपोषित हैं। यह आय का एक गैर टिकाऊ स्त्रोत है। यह अभी या बाद में सूख जाता है व पूर्ण करने के लिए कई स्थितियों के साथ आता है।

हावर्ड विश्वविद्यालय 380 वर्ष पुराना है व इसमें 5.2 प्रतिशत की स्वीकृति दर है। 21000 विद्यार्थी 210 एकड़ की भूमि में अध्ययन करते हैं अर्थात 100 विद्यार्थी प्रति एकड़। आईआईएम-ए-जिसे हावर्ड विश्वविद्यालय द्वारा स्थापित किया गया था, जो 55 वर्ष पुराना है व उसमें 1 प्रतिशत से कम की स्वीकृति दर है व 106 एकड़ में 494 विद्यार्थी पढ़ते हैं जिसका अर्थ है प्रति एकड़ 4। तो इस स्थिति में गलत क्या है? भारत कम संसाधनों के साथ एक घनी आबादी वाला देश है। हम भूमि की एक ही मात्रा में कम विद्यार्थियों को किस प्रकार पढ़ा सकते हैं जबकि हज़ारों लोग इन सीटों का इंतज़ार कर रहे हैं।

शुल्क समीति महाविद्यालयों का शुल्क निश्चित करती है, यह शुल्क का निर्धारण एक महाविद्यालय चलाने की कीमत के आधार पर करती है, जो लाभ यह विद्यार्थियों को देता है उसके आधार पर नहीं। ये कीमतें कभी कभी अधिक अनुमानित होती हैं व कभी कम। इसके अलावा, अच्छे महाविद्यालयों को बेहतर बनाने के लिए कोई प्रोत्साहन नहीं दिया जाता। चाहे वे कितने ही अच्छे बन जाए- वे एक ही शुल्क ले सकते हैं। इस समस्या का एक आसान समाधान महाविद्यालयों पर किसी भी तरह का शुल्क नियमन हटा लेना है। केवल प्रशासनिक विनियमन होना चाहिये व उनके पूर्व छात्रों के प्लेसमेंट पर पूर्ण पारदर्शिता होनी चाहिये। यह स्वतः ही महाविद्यालयों का स्तर सुधार देगा व उन्हें लगातार अपने पाठ्यक्रम संरचना को संशोधित करने में सक्षम करेगा ताकि उनके विद्यार्थियों को अच्छी नौकरियां प्राप्त हो सके। जब विद्यार्थियों को एक विशेष वेतन पर रखा जाएगा। यह भारत में शिक्षित बेरोज़गारों की संख्या को कम करेगा व महाविद्यालयों को उन मूल्य संवर्धन के आधार पर शुल्क लेने में सहायता करेगा जो वे उनके विद्यार्थियों की अर्जन क्षमता सुधारने के लिए करते है। 

बच्चे और टीवी

बच्चों के लिए छुट्टियों का अर्थ है टीवी देखने का समय-सरकार को कदम उठाने की आवश्यकता है। गुजरात में दिवाली की छुट्टियों का अर्थ है 15 से 20 दिन की छुट्टियां। अधिकांश व्यापार भी लगभग एक सप्ताह तक बंद रहते हैं और कई अभिभावक अपने बच्चों को छुट्टियों में घुमाने ले जाते हैं। जब तक विद्यालय बंद रहते हैं, उतने सभी दिनों तक अभिभावकों की छुट्टियां नहीं होतीं, इसलिए बच्चे घर पर स्वतंत्र होते हैं और उनके पास करने के लिए अधिक कुछ होता नहीं है। इसलिए लगभग 90 प्रतिशत बच्चे दिन में 3 घंटों से अधिक समय तक टी.वी देखते हैं। यह बहुत से अभिभावकों के लिए एक समस्या है। हालांकि सरकार इस समस्या को एक अवसर में बदल सकती है।

संयुक्त राज्य में सरकार ने 1990 में बच्चों की टीवी के लिए एक विनियमन लागू किया था। तो बच्चों के लिए किसी भी टीवी चैनल को इन नीयमों का पालन करना होगाः

  1. बच्चों के कार्यक्रम केवल सुबह 7 बजे से रात के 10 बजे तक प्रसारित होने चाहिये।
  2. प्रति सप्ताह तीन घंटे के कार्यक्रम प्रसारित किए जाने चाहिये जिसमें मनोरंजन के साथ या तो बच्चों के लिए शिक्षा अथवा जानकारी होनी चाहिये।
  3. ऐसे कार्यक्रमों पर ई/आई का चिन्ह लगा होना चाहिये।
  4. लंबाई में कम से कम तीस मिनट होना चाहिये एवं उसकी तारीख व समय को पहले से सूचित किया जाना चाहिये।
  5. चैनल प्रति घंटे केवल 10 से 12 मिनट के विज्ञापन दिखा सकता है।
  6. कार्यक्रमों का मुख्य उद्देश्य वाणिज्यिक प्रयोजन नहीं है।
  7. कार्यक्रम के दौरान कोई भी वेबसाइट प्रदर्शित नहीं की जानी चाहिये।

इन नीयमों पर अधिक जानकारी इस पर उपलब्ध हैः

भारत को ऐसे नियमों की आवश्यकता है। हमारे टेलिविज़न कार्यक्रम बच्चों की सहायता नहीं कर रहे बल्कि उन्हें नुकसान पहुंचा रहे हैं। आज के बच्चे भीम को को उनके माता पिता की अवधारणा से बिल्कुल भिन्न चरित्र के रूप में जानते हैं। छोटा भीम की महाभारत के भीम के साथ केवल एक ही समानता है। लड्डू के प्रति उसका प्रेम। रोल नम्बर 21-कृष्ण की एक पूर्णतः गलत छाप देता है और बच्चे उसे बहुत पसंद करते हैं। यदि आप सेसम स्ट्रीट व डिज़्नी क्लब हाउस देखें तो आप पाएंगे कि वहां मनोरंजन के साथ ही बहुत सारी शैक्षिक सामग्री भी मौजूद होती है। यहां तक कि ऐसे टीवी कार्यक्रमों ने कुछ क्षणों तक दर्शक द्वारा प्रतिक्रिया देने का इंतज़ार करते हुए कार्यक्रम के पात्रों के मध्य बातचात को लागू किया है। डोरा दि एक्सप्लोरर एवं जेक दि नेवरलैंड पाइरेट्स काफी संवादात्मक कार्यक्रम हैं भले ही वे सूचना के आधार पर सीमित हैं।

सरकार को भारतीय टीवी सेगमेंट का विनियमन करना होगा अन्यथा बच्चों के मस्तिष्क का विकास प्रभावित होगा। बगैर किसी शारीरिक गतिविधि के घंटों तक टीवी देखने से बच्चों की सेहत के लिए समस्याएं उत्पन्न हो जाएंगी। इसके अलावा बेकार कार्टून मस्तिष्क की स्पष्ट रूप से सोचने की क्षमता को भी प्रभावित करते हैं। एक बच्चा जो प्रतिदिन 2 घंटे से अधिक टीवी देखता है, उसे 15 मिनट से अधिक देर टीवी ना देखने वाले बच्चे से कम रचनात्मक पाया गया है। मुझे आश्चर्य होता है कि डोरेमोन बच्चों को कौन से शिक्षाप्रद मूल्य प्रदान करता है? अंग्रेज़ी कार्टून देखने से बच्चों के अंग्रेज़ी बोलने के कौशल में सुधार हो सकता था परंतु वे भी अनुवादित हैं व हिन्दी में उपलब्ध हैं। इससे, थोड़ा बहुत लाभ जो वे दे सकते थे वह भी समाप्त हो जाता है!

यदि अभिभावकों के पास बच्चे को उत्पादक रूप से संलग्न करने के लिए कोई वैकल्पिक साधन नहीं है तो वे भी समान रूप से दोषी हैं। एकल परिवारों में पर्याप्त चचेरे व सगे भाई-बहन नहीं होते एवं कॉलोनी में दोस्त अधिक नहीं होते हैं जिनके साथ बच्चे खेल सकें। पज़ल, वर्ग पहेली, सुडोकु, शब्द खोज, बोर्ड खेल, कला व शिल्प, चित्रकारी व पुस्तकें पढ़ने को भी बढ़ावा दिया जाना चाहिये।


Tuesday 6 September 2016

यातायात सुरक्षा: क्या विद्यालय बदलाव ला सकते हैं?

हाल ही में विद्यालय से घर लौटने के दौरान दो लड़कों की मृत्यु हो गई व इससे देश की एक महत्त्वपूर्ण समस्या सामने आई -सड़क दुर्घटनाएँ व मृत्यु।

आँकडे़ बहुत गंभीर हंै- भारत में हर घंटे 15 व्यक्तिों की मृत्यु होती है व प्रतिदिन 20 बच्चों की। दुर्घटनाओं के कारण विकलांग होने की संख्या - प्रतिवर्ष लगभग 5 लाख। पूरे विश्व में बुरे सड़क सुरक्षा आँकड़ों में चीन के बाद दूसरा स्थान भारत का ही स्थान है। हमारे पास विश्व के 1 प्रतिशत वाहन हैं परंतु 10 प्रतिशत दुर्घटना जनहानी!
तो विद्यालय, अभिभावक व राष्ट्र इन मृत्यु व विकलांगता को कम करने के लिए सामान्यतः क्या कर सकते हैं?

24.9 प्रतिशत मृत्यु दुपहिया वाहन पर होती है। दुपहिया वाहन पर मौत को रोकने का एक आसान उपाय है -हेलमेट। मैंने दुपहिया वाहन से होने वाली जितनी भी मौतों के बारे में सुना है उनमें से अधिकांश में पीड़ित ने हेलमेट नहीं पहना था। मुझे लगता है कि विद्यालय व अभिभावक हेलमेट अनिवार्यता आसानी से लागू कर सकते हैं।

10.8 प्रतिशत मृत्यु कार में होती हैं। कार में हानी को कम करने का आसान रास्ता सीट बेल्ट हैं। यू.के. का एक शोध बताता है कि कार के सीट बेल्ट, कार की पहली सीट की मृत्यु के 45 प्रतिशत को रोकते हैं। साथ ही, एयर बैग का सुरक्षा तंत्र तब ही सक्रिय होता है जब व्यक्ति ने सीट बेल्ट पहना हो। 1994 से भारत में पहली सीट में

सीट बेल्ट का होना अनिवार्य है और उसके बीस वर्षों बाद भी- 99 प्रतिशत लोग उन्हें नहीं पहन रहे हैं।
सीट बेल्ट व हेलमेट जैसे सुरक्षा उपकरण का उपयोग मृत्यु दर को सीधे कम करता है। हर सड़क दुर्घटना की सूचना देते समय समाचार पत्र के संवाददाताओं को यह उल्लेख करना चाहिए कि 50 प्रतिशत मृत्यु सुसाध्य क्षति से हुई है, परंतु समय पर ईलाज नहीं दिया गया। कुछ दूरस्थ स्थान होने की वजह से हो सकते है, तद्यपि यदि सभी नागरिकों को उचित प्रशिक्षण दिया जाए कि एक सड़क दुर्घटना का सामना होने पर क्या किया जाना चाहिए, उस से कई लोगों की जान बच जाएगी। यदि वे रिपोर्टिंग (सूचना) कर रहे हैं, उन्हंे प्रक्रिया व बाधाएँ पता होनी चाहिए। मुझे यकीन है कि कोई भी व्यक्ति 108 पर फोन करेगा यदि उस पर दुर्घटना का आरोप ना लगाया जाए।

शराब पीकर वाहन चलाना भी सड़क दुर्घटना मृत्यु का एक अन्य प्रमुख कारण है। गुजरात में निषेध होने के कारण यहाँ शराब की वजह से होने वाली दुर्घटनाओं की संख्या बहुत कम है। उसका सबूत यह है कि भारत में सड़क दुर्घटना के शीर्ष 10 शहरों में गुजरात का एक भी शहर नहीं है। अहमदाबाद से छोटे शहर जैसे नासिक, जयपुर, कोच्चि, तिरूवनंतपुरम में सड़क दुर्घटना क्षति होने की संख्या अधिक है और इन सभी स्थानों में निषेध नहीं है। एक आसान समाधान, आपके रक्त में अल्केहोल का स्तर उच्च होने पर, ओला/उबेर जैसी टैक्सी सेवाओं का उपयोग करना है।

यातायात नियमों का पालन करना एक अन्य प्रमुख क्षेत्र है जिसमें भारत को सुधार करने की आवश्यकता है। गति सीमा के भीतर वाहन चलाना, सड़क संकेतों पर रूकना, व सही ओर गाड़ी चलाना, ये आसान से नियम हैं जिन से मृत्यु से बचाव किया जा सकता है।

बच्चों को उचित व्यक्तियों का अनुकरण करना चाहिए। अतिशीघ्र गाड़ी चलाने वाले व सड़क पर करतब करने वाले व्यक्ति वे हैं जिन्हें उनके परिवार की परवाह नहीं है। माता पिता के सड़क पर मरने के बाद बच्चे अकेले रह जाते हैं। उन्हें मानव जीवन का मूल्य समझाया जाना चाहिए व ऐसा करने पर वे बड़े होकर ज़िम्मेदार नागरिक बनेंगे।

क्यों ‘‘बोर्ड’’ की परीक्षाएं अधिक होनी चाहिए?

जब भी कोई ‘बोर्ड’ परीक्षा शब्द का उल्लेख करता है, वयस्कों को भयावह अनुस्मरण हो जाते हैं। यहाँ तक कि वे बच्चे जिन्होंने कभी बोर्ड परिक्षाओं का अनुभव नहीं किया, उन्होंने भी इसके विषय में इतनी कहानियाँ सुनी है कि वे भी भयभीत हो जाते हैं। तो वर्तमान में हमारे पास बोर्ड़ की दो परिक्षाएँ हैं। पहली 10वीं में व दूसरी 12वीं में है। सी.बी.एस.सी. ने उन्ही विद्यालय के शिक्षकों से उत्तरपुस्तिका का मूल्यांकन करवा कर 10वीं बोर्ड परीक्षा के महत्त्व को कम करने का प्रयास किया है। खैर हम जानने का प्रयास करते हैं कि बोर्ड परीक्षाएँ करतीं क्या हैं?

  • यह सभी बच्चों का मूल्यांकन समान स्तर पर करती है इसलिए समग्र राष्ट्र (या राज्य) के बच्चों का मूल्यांकन एक ही प्रश्नपत्र व एक ही अंकन स्वरूप के आधार पर किया जा सकता है व उनका परिणाम एक साथ ही घोषित किया जाता है। इससे महाविद्यालय को यह निर्णय लेने में सहायता मिलती है कि किसे प्रवेश दिया जाना है।
  • यह अभिभावकों को विद्यालय के प्रदर्शन का मूल्यांकन करने में सहायता करती है कि क्या विद्यालय अच्छी तरह से पढ़ा रहा है। 

मुझे लगता है कि बोर्ड परीक्षाएँ विभिन्न कारणों से हर वर्ष ली जानी चाहिए (5वीं कक्षा के बाद)।

पहला यह कि इससे विद्यार्थी 12वीं कक्षा की कड़ी चुनौती का सामना करने के लिए प्रशिक्षित हो जाते हैं जिसके आधार पर उनके भविष्य का निर्णय होगा। इस प्रकार वे सभी तैयार रहेंगे।

दूसरा, उसी शिक्षक द्वारा पढ़ाया जाना व उसी के द्वारा मूल्यांकन किए जाने से हितों का टकराव पैदा होता है। ‘‘मोसल मा जमवानु अने मां पिरसनार’’। शिक्षिका उन्हीं प्रश्नों को दोहराते हुए पढ़ा सकती है जिन्हें वह परीक्षा में पूछने वाली है। ऐसे मामले हुए हैं जहाँ अंक प्रदान करने में शिक्षक उदार रहे हैं।

तीसरा, अभिभावक और अधिक प्रभावी ढंग से विद्यालय चुन सकते हैं, जब ऐसे परिणाम प्रकाशित होते हैं। तो वे मुल्यांकन कर सकते हैं कि कौन-सा विद्यालय वास्तव में अच्छी शिक्षा प्रदान करता है व उन्हें किस विद्यालय में उनके बच्चे को रखना चाहिए।

मेरा विचार है कि यदि सरकार एक समान प्रश्न पत्र का निर्णय ले व अन्य विद्यालय के  शिक्षकों से अज्ञात रूप से मुल्यांकन करवाएं, अभिभावक वास्तव में निष्पक्ष रूप से बच्चे व विद्यालय के प्रदर्शन का मूल्यांकन करने में सक्षम होंगे। मैंने यह भी देखा है कि ऐसी परिक्षाएं पाठ्यक्रम के बेहतर गठन में सहायक हो सकती हैं। उन अवधारणाओं को पाठ्यपुस्तक में अच्छी तरह से शामिल करने की आवश्यकता है जिन्हंे अधिकांश विद्यालय के बच्चे समझ नहीं पाते हैं। निरंतर बुरे परिणामों वाले विद्यालयों का अधिक निरीक्षण किया जाना चाहिए व उनके स्तर को सुधारने के लिए समय पर सहायता दी जानी चाहिए।

हमें शिक्षक के वेतन व प्रोत्साहन (इंसेंटिव) को विद्यार्थियों के प्रदर्शन के साथ जोड़ना चाहिए ताकि अच्छे शिक्षकों को पुरस्कृत किया जाए व कमतर प्रदर्शन वाले शिक्षक प्रमाणित सफल शिक्षक से सीख सकें। अन्य महत्त्वपूर्ण प्रदर्शन मापक जो तभी किया जा सकता है जब यह तंत्र उस योग्य हो ‘‘सुधार माप’’ तो यदि गणित का एक 8वीं कक्षा के शिक्षक को ऐसे विद्यार्थी प्राप्त होते हैं जिनका 7वीं कक्षा का मानक औसत परिणाम मान लीजिए 40 प्रतिशत था। यह मेहनती और बुद्धिमान शिक्षक उन परिणामों को मान लीजिए 60 प्रतिशत के औसत तक लेकर आया। शहर भर में 8वीं कक्षा के अन्य शिक्षक औसत परिणामों में केवल 5 प्रतिशत का ही सुधार ला पाने में सक्षम हुए, तब स्पष्ट तौर पर, परिणाम में 15 प्रतिशत की बढ़ोतरी उस विशेष शिक्षक की वजह से ही हुई है एवं अन्य शिक्षकों को भी अच्छा प्रदर्शन करने के लिए प्रेरित करने के लिए उसे इंसेंटिव दिया जाना चाहिए।

प्रवेश खुला है -परंतु कहां आवेदन दिया जाए?

दीवाली समाप्त हो चुकी है और अधिकांश विद्यालयों ने प्रवेश प्रक्रिया प्रारंभ कर दी है। आप एकाएक ही समाचारपत्रों और होर्डिंगों में विभिन्न विद्यालयों के विषय में विज्ञापन देखेंगे जो यह घोषणा करते हैं कि अगले शैक्षणिक वर्ष के लिए प्रवेश अब खुल चुके हंै। अधिकांश अभिभावक जो अपने बच्चे की शिक्षा प्ले ग्रुप या नर्सरी में आरंभ करवाना चाहते हैं, वे किसी न किसी विद्यालय पर विचार करने में व्यस्त हो जाते हैं। ऐसे भी कुछ अभिभावक हैं जो उनके बच्चे के वर्तमान विद्यालय से असंतुष्ट हैं व दूसरे विद्यालय में स्थानांतरित होने में रूचि रखते हैं, और आवेदन करने के लिए यही सबसे उपयुक्त समय है।

पहले बच्चे के अभिभावकों के लिए सबसे बड़ी दुविधाओं में से एक पूर्व विद्यालय व पूर्ण प्राथमिक विद्यालय का चयन करना है।

लगभग 7 वर्षों से छोटे पूर्व विद्यालय शहर के विभिन्न नुक्कड़ों व कोनांे में खुल चुके हैं। ऐसे विद्यालय सामान्यतः प्ले ग्रुप, नर्सरी व जूनियर के.जी. प्रदान करते हैं। कभी-कभी वे सीनियर के.जी. भी प्रदान करते हैं। वे पूर्व विद्यालयों की एक श्रंृखला से संबद्ध होते हैं या फिर एकल भी हो सकते हैं। वे स्थान की एक बड़ी सुविधा प्रदान करते हैं क्योंकि वे आमतौर पर अधिकांश आवासीय क्षेत्रों के 2-3 किलोमीटर के भीतर होते हैं। दुर्भाग्य से उनकी कुछ ख़ामियाँ भी हैं। पहली ख़ामी यह है कि ये शिक्षा का अनियंत्रित क्षेत्र है। इसमें कोई भी पाठ्यक्रम सरकार द्वारा निर्धारित नहीं है व बच्चों के प्रदर्शन के मूल्यांकन की कोई मानकीकृत पद्धति नहीं है। इसलिए विद्यालय ने बच्चों को वाकई पढ़ाया है या केवल उन्हें खेलने में व्यस्त रखा है, एक बड़ा प्रश्न है। यहाँ तक कि कुछ विद्यालय वर्ष में 180 दिवस कार्य भी नहीं करते और कई छुट्टियाँ दे देते हैं। कार्य दिवसों के लिए भी उनके संचालन के घंटांे की संख्या भिन्न होती है - कुछ के 3 घंटे होते हैं वहीं कुछ प्रतिदिन चार घंटे काम करते हैं। भारत में किसी भी अन्य शिक्षा विभाग को चाहे वह प्राथमिक, माध्यमिक, महाविद्यालय या व्यावसायिक पाठ्यक्रम हो, उसे पूर्व विद्यालय विभाग की तरह अनियंत्रित नहीं छोड़ दिया गया है।

दूसरी व सबसे बड़ी ख़ामी है कि बच्चे के पहली कक्षा में प्रवेश का क्या? अभिभावकों को जूनियर के.जी. के बाद एक प्राथमिक विद्यालय का चयन करना होता है। दुर्भाग्य से दुखद बात यह है कि अधिकंाश प्राथमिक विद्यालयों ने स्वयं का पूर्व विद्यालय प्रारंभ कर लिया है इसलिए उनके पास अन्य पूर्व विद्यालयों के बच्चों के लिए पहली कक्षा में रिक्त पद नहीं अथवा सीमित हंै। इस कारण से अधिकांश अभिभावकों को निचली श्रेणी के विद्यालय के लिए समझौता करना पड़ता है।

मैंने कुछ विद्यालयों से पूछा जिन्हांेने प्ले ग्रुप, नर्सरी व अन्य कक्षाओं के लिए प्रवेश खोला है। तो मैंने पूछा कि अभिभावक को प्ले ग्रुप या नर्सरी में आवेदन करने की क्या आवश्यकता है जबकि बड़ी कक्षाओं के लिए प्रवेश खुला है। मुझे ‘‘अस्वीकृति की संभावना’’ नामक एक दिलचस्प अवधारणा के विषय में पता चला। अहमदाबाद के शीर्ष 10 विद्यालयों में सबसे कम अस्वीकृति के स्तर प्ले ग्रुप/नर्सरी में है, एक सामान्य से कारण की वजह से कि उनके पास आवेदनों की तुलना में अधिक सीटे हैं। तो उदाहरण के लिए एक प्लेग्रुप में प्रवेश के लिए अस्वीकृति की संभावना 5 प्रतिशत होगी जबकि पहली कक्षा में प्रवेश के लिए अस्वीकृति की संभावना 95 प्रतिशत होगी।

मैं पाठकों को सुझाव दूँगा कि वे एक सुविज्ञ निर्णय लें व उनके बच्चों का प्रवेश प्राथमिक विद्यालयों में कम उम्र से ही करवा दें ताकि भविष्य में उनका प्रवेश सुरक्षित रहे।

क्या भविष्य में बच्चों की संख्या अधिक होगी?

विश्व की जनसंख्या 7.3 अरब है और जब से इसने 1 अरब के आंकडे को पार किया है, तबसे समीक्षक कहते आ रहे हंै कि विश्व और अधिक लोगों को नहीं रख सकता। अभी तक तो वे लोग गलत साबित हुए हैं। परंतु भविष्य में क्या होगा? वैश्विक जनसंख्या वृद्धि कब समाप्त होगी? मेरे दादाजी के 13 भाई बहन थे, मेरे पिताजी के 5 थे और मेरा एक था। मेरे पिताजी की समआयु के 99 प्रतिशत लोगों के 2 से अधिक भाई बहन होने पर भी उनके 2 से अधिक बच्चे नहीं है। तो एक पीढ़ी में क्या परिवर्तित हो गया और एक घरपरिवार में बच्चों की संख्या भारी रूप से क्यों गिर गई?

मैं प्रोफेसर हेंस रोसलिंग का एक बडा प्रश्ंासक हूँ, जिनके काफी सारे विड़ियो आॅनलाइन हैं जो इस पर प्रकाश डालते हैं कि किस प्रकार भविष्य में जनसंख्या बढ़ेगी। उनका कहना है कि एक माता के बच्चों की संख्या व उसके धर्म में अधिक संबंध नहीं है। प्रति महिला बच्चों की संख्या पर प्रभाव डालने वाले महत्त्वपूर्ण कारक हैं:

  • शिशु मृत्यु दर
  • माता की शिक्षा
  • आय में वृद्धि
  • विवाह की उम्र में वृद्धि
  • कामकाजी महिलाओं मंे वृद्धि


प्रो. रोसलिंग के अनुसार विश्व जनसंख्या 10 अरब तक पहुँच जाएगी व उस संख्या को पार नहीं करेगी। इस संख्या के पीछे उनके विभिन्न सांख्यिकीय प्रारूप हैं। तद्यपि रोचक तथ्य यह है कि हम ‘उच्चतम शिशु’ संख्या पर पहुँच चुके हैं। हम वर्तमान में बच्चों की संख्या से अधिक संख्या तक नहीं पहुँचने वाले हैं। जीवन प्रत्याशा में वृद्धि होने के कारण यद्यपि हमारे पास हमेशा से 2 अरब बच्चे थे, विश्व की कुल जनसंख्या 3 अरब और बढ़ेगी व यह संख्या वहीं कायम रहेगी।  

तो विद्यालय के लिए क्या भविष्य है? यदि विश्व में बच्चों की संख्या नहीं बढ़ने वाली तो हमंे  नए विद्यालयों की आवश्यकता क्यों है और क्या उनके पास बुनियादी ढ़ाँचे को बनाए रखने के लिए पर्याप्त बच्चे होंगे?

उत्तर है स्थानांतरण व अभिभावकों की आवश्यकताओं में परिवर्तन।

भारत का 70 प्रतिशत भाग गाँवों में रहता है। किसी भी विकसित अर्थव्यवस्था में 25 प्रतिशत से अधिक लोग गँावों में निवास नहीं करेंगे। इसलिए यदि हम आशा करें कि आने वाले 10 वर्षों में हम 50 प्रतिशत शहरीकरण प्राप्त कर लेंगे, तो हम 24 करोड़ लोगों के शहर में आकर निवास करने के विषय में बात कर रहे हैं। यदि वे 100 मुख्य शहरों में आकर रहेंगे, तो इस प्रकार हर शहर में प्रतिवर्ष 2.4 लाख लोग जुडें़गे। वे अपने साथ बच्चों को लाएँगे जिन्हें शिक्षा की आवश्यकता होगी। इसलिए शहरों में विद्यालयों का निर्माण किया जाना आवश्यक है।

एक और बड़ी समस्या माता-पिता की आवश्यकताओं में परिवर्तन है। पहले गुजराती माध्यम विद्यालयों की माँग थी। अब अंगे्रज़ी माध्यम विद्यालयों की माँग है। महानगरों में लोग सी.बी.एस.ई. विद्यालयों को प्राथमिकता देते हैं ताकि नौकरी के लिए एक शहर से दूसरे शहर में स्थानांतरित होने में कठिनाई ना आए। धनी लोग अंतराष्ट्रीय विद्यालय को प्राथमिकता देते हैं जिनका एक अलग ही स्तर होता है। इसलिए विद्यालयों को बदलते समय के साथ स्वयं को बदलना होगा। पहले तैराकी व घुड़सवारी का विद्यालय के पाठ्यक्रम का हिस्सा होना दूर की कौड़ी लग रहा था। आज कुछ विद्यालय हैं जो अभी से ही वह प्रदान कर रहे हैं और भविष्य में छोटे विद्यालय बंद हो जाएँगे व ऐसे आधुनिक विद्यालय बढ़ेंगे।